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प्रकाशकीय
‘कैसे पायें वोटर पेंशन’ आपके हाथों में है। इस पुस्तिका की 12 लाऽ प्रतियाँ अब तक लोगों के हाथों में पहुँच चुकी हैं। इस पुस्तिका का प्रकाशन 2008 में शुरू हुआ तथा अब तक इसके 9 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। 2021 में प्रकाशित पिछले संस्करण तक इस पुस्तिका का नाम ‘वोटरशिप लाओ, गरीबी हटाओ’ था। अब इसका नाम बदलकर ‘कैसे पायें वोटर पेंशन’ कर दिया गया है।
इसका कारण यह है कि इन पंत्तिफ़यों के लेऽक श्री विश्वात्मा ने 2001 में सड़क पर जनता को मशीनों और प्राकृतिक संसाधनों की आमदनी को वोटरों में बाँटने के लिए पूरे देश में आर्थिक आजादी आन्दोलन चलाया था, जिसमें वोटरों को दी जाने वाली रकम को वोटर पेंशन कहा गया। वह शब्द देश में बहुत विख्यात हुआ। बाद में संसद में याचिका देते समय वोटर पेंशन को एक नया नाम दिया गया वोटरशिप।
2007 में संसद द्वारा वोटरशिप की याचिका पर सकारात्मक फैसला न देने के बाद ‘वोटरशिप लाओ, गरीबी हटाओ’ पुस्तिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इससे लोगों में कुछ भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी। लोग वोटर पेंशन और वोटरशिप को अलग अलग समझने लगे।
इसी कारण इस पुस्तिका का नाम ‘कैसे पायें वोटर पेंशन’ रऽा गया है- आशा है कि नाम बदलने से वोटर पेंशन के समर्थकों में भ्रम की स्थिति कम होगी, और वे इस पुस्तिका को पढ़कर वोटर पेंशन के लिए संसद में हुए संघर्ष की कथा को जान पाएंगे-
प्रकाशक

कैसे पाएं वोटर पेंशन
रामायण की कथा में एक प्रसंग है। कहते हैं कि रावण ने गिद्धराज जटायू के पंखों को अपनी तलवार से काट डाला था। लहूलुहान जटायू आसमान से जमीन पर आ गिरा। उसकी गलती इतनी थी कि उसने सीता की अपहरण से मुक्त कराने की कोशिश की थी।
जटायू के साथ जो कुछ हुआ था। वही हुआ सन् 2007 में भारत के 137 सांसदों के साथ। सांसदों ने सन्-2005-07 में संसद में यह प्रस्ताव किया कि फ्मशीनों के परिश्रम और प्राकृतिक सम्पदा से पैदा हो रहे धन को वोटरों में बांटा जाये। इस बंटवारे के लिये एक कानून बनाया जाये। कम से कम औसत आमदनी की आधी रकम वोटरों को दी जायेय्। इस प्रस्ताव में उस रकम को स्कॉलरशिप की तर्ज पर ‘वोटरशिप’ कहा गया। पहले इस रकम को वोटर पेंशन कहा गया था। संसद द्वारा इस प्रस्ताव पर कानून बनने पर सन्-2019 की कीमतों पर आज लगभग रू- 8500 हर वोटर को महगाई भत्ते के साथ प्रति माह मिल रहा होता। सांसदों ने अपनी इस मांग पर लोकसभा और राज्य सभा में नोटिस दिया था।
किन्तु जटायू की तरह इन सांसदों के पर कतर दिये गये। सीता की आबरू को बचाने वाले जटायू के पंखों को रावण ने काटा था। वोटरों की आबरू को बचाने वाले सांसदों के पंखों को एबी मानसिकता के देश-विदेश के खरबपतियों ने काटा। पंख काटने के लिये इन खरबपतियों ने बड़ी पार्टियों के अध्यक्षों को कैंची की तरह इस्तेमाल किया।
संसद में वोटर पेंशन (वोटरशिप) देने के प्रस्ताव पर पर क्या हुआ?
संक्षेप में कहानी इस प्रकार है। सन 2005 में इन पंक्तियों के लेखक विश्वात्मा भरत गांधी व अन्य ने संसद में एक याचिका पेश करने की मुहिम चलाई। इस ऐतिहासिक राष्ट्रहित याचिका को 137 सांसदों ने संसद में पेश किया। याचिका में सांसदों ने यह तर्क दिया कि जब वोटर (मतकर्ता) वोट देकर सांसदाें-विधायकों को वेतन-भत्ते और आजीवन पेंशन पाने लायक बनाते है, तो वोटरों (मतकर्ताओं) को भी वेतन-भत्ता मिलना चाहिए। सांसदों द्वारा पेश याचिका में इस रकम को छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) की तर्ज पर ‘मतकर्तावृत्ति (वोटरशिप)’ कहा गया है। सरल भाषा में कुछ लोग वोटरशिप को ‘वोटर पेंशन’ भी कहते हैं।
याचिका में कहा गया कि देश का विकास एक गाड़ी की तरह है। विकास की गाड़ी पर सभी वोटरों को बैठने का मौका मिलना चाहिए। लोकतंत्र में विकास कोई ऐसी गाड़ी नहीं है। जिस पर तथाकथित परिश्रमी और तथाकथित मुठ्ठी भर बुद्धिमान और धनवान लोग ही बैठें। ऐसा क्यों हो कि विकास की इस गाड़ी को पूरा वोटर समाज बैलों और गुलामों की तरह पीढ़ी दर पीढी खींचता रहे। किन्तु उसे उस गाड़ी में बैठने का मौका न दिया जाये। यह अन्याय है, जो रुकना चाहिये।
वोटरशिप के प्रस्ताव पर विचार करने के लिये संसद में एक कमेटी बनायी गई। कमेटी श्री दीपक गोयल की अध्यक्षता में बनी। यह राज्यसभा संसदीय सचिवालय के अधिकारियों की कमेटी थी। कमेटी ने लंबी रिसर्च के बाद 02 दिसम्बर, 2011 को अपनी रिपोर्ट पेश किया। कमेटी ने वोटरशिप अधिकार देने का प्रस्ताव मान लिया। किन्तु खरबपतियों के दबाव में आकर उनके पालतू दलाल दलों के अध्यक्षों ने वोटरशिप प्रस्ताव का विरोध किया। इस कारण राज्य सभा के महासचिव ने वोटरशिप के मामले को लोकसभा में पेश करने की बात कह कर लटका दिया, जो संसद में सन् 2005 से लटका है।
लोकतंत्र में क्या वोटर बैल होता है?
लोकतंत्र में वोटरों की हैसियत विकास की गाड़ी में बैठने वाले मालिक की होती है। इसीलिये सभी लोगों को एक वोट का ही अधिकार होता है। चाहे वह कथित बुद्धिमान हो या कथित अबुद्धिमान हो, कथितरूप से परिश्रमी हो या अपरिश्रमी हो। लोकतंत्र में सबके वोट का मूल्य एक ही होता है। जब सभी वोटरों को संविधान समानता का अधिकार देता है, तो दो वोटरों में भीषण आर्थिक विषमता कैसे पैदा हुई? गहराई से जांच करें तो इसका एक ही कारण है-मशीनों के परिश्रम और प्राकृतिक सम्पदा से पैदा हो रहे धन को वोटरों में न बांटा जाना। इस रकम को मुठ्ठी भर लोग कब्जा कर सकें, इसके लिये तमाम कानून बना देना। यह अन्याय तभी रूक सकेगा जब एक नया कानून बनाकर इस धन को सभी वोटरों में समान रूप से वितरित किया जाये।
क्या वोटरशिप (वोटर पेंशन) अधिकार के बिना लोकतंत्र संभव नहीं?
स्पष्ट है कि जब तक वोटरशिप अधिकार के लिये कानून नहीं बनता, तब तक यह लोकतंत्र नकली बना रहेगा। तब तक यह लोकतंत्र मात्र मुठ्ठी भर लोगों की सेवा करता रहेगा। बाकी लोग उनके उसी तरह गुलाम बने रहेंगें, जैसे पालतू बैल अपने किसानों के गुलाम होते हैं। जिस तरह किसान के विकास से बैलों के विकास का कोई संबंध नहीं होता, उसी तरह वोटरशिप के अधिकार के बिना उस लोकतंत्र में देश के विकास से बहुसंख्यक वोटर समाज का कोई संबंध नहीं होता।
संसद में वोटरशिप अधिकार देने का विरोध क्यों हुआ?
संसद में यदि वोटरशिप का प्रस्ताव लटकाया न जाता, तो हर वोटर को रिजर्व बैंक का ए-टी-एम- कैश कार्ड मिल जाता और बैंक से उन्हें सन् 2019 की कीमतों पर कम से कम रू- 8500/-व मंहगाई भत्ता हर महीने मिल रहा होता। ये प्रस्ताव यदि संसद मान लेती, तो देश की तस्वीर बदल जाती। किन्तु खरबपतियों को यह बात मंजूर नहीं थी। क्योंकि उन्हें यह बात अच्छी नहीं लग रही थी कि वोटरशिप का पैसा पाकर गरीब लोग भी अपनी मेहनत का सौदा करने लगें और अपना रेट बढ़ा दें।
पार्टी चलाने के लिये पार्टियों के अध्यक्षों को अरबों रूपये की जरूरत होती है। उन्हें यह रकम अरबपतियों से ही मिलती है। इसलिये पार्टियों के अध्यक्ष अरबपतियाें की धमकी में आ गये। यदि इस प्रस्ताव पर कानून बन जाता तो देश में दलाल मीडिया के सहारे राज कर रहे खरबपतियों की जगह वोटरों का राज कायम हो जाता। क्योंकि राज उसका होता है, जिसको टैक्स का पैसा खर्च करने का अधिकार होता है।
सस्ता मजदूर पाने, उनसे काम करवाकर सस्ता सामान पैदा करने और सस्ता सामान विदेशों में बेचकर मुनाफा कमाने के नाम पर जानबूझकर लोगों को गरीब बनाये रखना वास्तव में गरीबी नहीं, गुलामी है। पार्टियों के अध्यक्ष, देश व प्रदेश सरकारें, ए-बी- (।ठ) मानसिकता के अधिकांश अधिकारी व बुद्धिजीवी भी विकास के लिए आर्थिक गुलामी जरूरी मानते हैं। यदि इन लोगों का वश आगे भी चलेगा, तो ये लोग 80 प्रतिशत लोगों को 1000 साल तक गुलाम बनाकर ही रखेंगे। इन लोगों की नजर में मतकर्ता (वोटर) देश का मालिक नहीं है। वह कानूनों के खूँटे बंधा बैल है या पुलिस व सेना के निशाने पर खड़ा, देश की सीमाओं में कैद एक गुलाम है।
2005 में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने वोटरशिप लागू करने का मन तो बनाया, लेकिन खरबपतियों के डर के कारण जनता के सामने खुलकर बताया नहीं। वोटरशिप लागू करने की दिशा में ही तत्कालीन केन्द्र सरकार ने सन् 2009 में आधार कार्ड कानून बनाया गया। जिससे वोटर लोग वोटरशिप लेने के लिये एक नाम से कई बैंक खाते न खोल सकेें। नकदी अंतरण योजना लागू करके गैस सिलेण्डर का पैसा सीधे लोगो के खाते मे देने की योजना सन् 2010 में बनी। लेकिन इतना करते ही देश-विदेश के एबी- मानसिकता के खरबपतियों की नजर लग गई। उन्होंने भ्रष्टाचार खत्म करने के बहाने टी-वी- चैनलों के मालिकों को सैकड़ों करोड़ रूपया रिश्वत देकर हो हल्ला मचवाया और वोटरशिप की गाड़ी को पटरी से उतार दिया। इस पूरी साजिश को ज्यादातर लोग समझ नहीं सके व अपना स्वयं का पैर काटने के आंदोलन में साथ भी दिये।
क्या वोटर लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही का बोझ उठा रहा है?
ऐसी स्थिति में यह सवाल उठना लािज़मी है कि यदि ज्यादातर वोटरों की हालत गुलामों जैसी ही बनी रहनी है, तो उन्हें लोकतंत्र के नाम पर चल रही खरबपतियों की इस तानाशाही के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठानी चाहिए? जब हर पार्टी बड़ी होते ही खरबपतियों के कब्जे में चली जाती है, तो उन पार्टियों को वोट देकर खरबपतियों की तानाशाही को मजबूत क्यों करना चाहिए? लोकतंत्र की रोटी खाने वाले और पूंजीवाद व सामंतवाद का गुणगान करने वाले एबी (।ठ) मानसिकता के पार्टी अध्यक्षों व उनके समर्थकों का सामाजिक व राजनीतिक बहिष्कार क्यों नहीं करना चाहिए? संसद में, विधानसभाओं में और नौकरियों में गरीबों व मध्य वर्ग यानी पावर्टी लाइन (पीएल) समाज के लिये आरक्षण की मांग क्यों नहीं करनी चाहिये?
जब 95 प्रतिशत लोग चुनाव कभी जीत ही नहीं सकते, तो इन 95 लोगों को अपनी अलग संसद, अलग सरकार, अलग करेंसी नोट, अलग शासन-प्रशासन व अलग न्यायालय बनाने की कार्यवाही क्यों नहीं शुरू करनी चाहिए? वेतन, पेंशन, भत्ता, बस, रेल, हवाई जहाज आदि सारी सुविधायें अरबपति नेताओं को ही क्यों मिलनी चाहियें? पी-एल- समाज (गरीबी रेखा के नीचे) के वोटरों को भी क्यों नही मिलनी चाहिए? राजशाही में बच्चों की अमीरी-गरीबी का रिश्ता बाप की अमीरी-गरीबी से होता था। लेकिन असीमित उत्तराधिकार कानून के सहारे यह रिश्ता लोकतंत्र में भी बना क्यों रहना चाहिए? डंकल समझौते-1994 द्वारा जब जूते को पूरी दुनिया में घूमने की कानूनी आजादी मिल गई, तो पी-एल- समाज के वोटरों को देश की चहारदीवारी के अंदर देशप्रेम के नाम पर आखिर कब तक कैद करके रखा जायेगा?
इण्टरनेट के युग में आज नई पीढ़ी आजादी मांग रही है। उसको दुनिया भर में घूमकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना है, उन्हें देशों की चहारदीवारी से आजाद होना है। किन्तु दलाल मीडिया से हो-हुल्लड़ करवा के सत्ता घूम-फिर कर उन्हीं दकियानूस व खरबपतियों की कठपुतलियों के हाथों में सौंप दी जाती है। जो देश के लोगों के वैश्विक अधिकारों से अनभिज्ञ हैं। ये लोग संसद में 137 सांसदों द्वारा पेश दुनिया को बदल डालने वाले राजनीतिक सुधारों संबंधी दस्तावेज को सन् 2005 से दबाये बैठे हैं। इस प्रस्ताव को लागू करने की बात ही छोड़िये। संसद में इस पर बहस भी कराने को तैयार नही हैं। 6 मई 2008 को बहस होनी थी। एक दिन पहले संसद बंद कर दी गई।
वोटरशिप (वोटर पेंशन) आंदोलन ने देश को क्या दिया?
जो पुस्तक आपके हाथ में है। देश में इसकी 12 लाख से अधिक प्रतियां लोगों के हाथों तक पहुंच चुकी हैं। अब देश में वोटरशिप के समर्थकों की संख्या लगभग 5 करोड़ से अधिक है। देश की 100 से अधिक राजनीतिक पार्टियां व गठबंधन वोटरशिप को अपनी-अपनी भाषा में और अपने-अपने तरीके से अपने घोषणापत्र में शामिल कर चुके हैं। वोटरशिप के प्रति बढ़ती जागरुकता से मजबूर होकर केन्द्र सरकार ने सन् 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में एक चैप्टर के रूप में शामिल किया। हालांकि विदेशों की नकल करके उसको ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ (यूबीआई) कहा गया।
सन् 2019-20 के बजट में सरकार ने इतने बजट का भी इंतजाम कर दिया। जिससे प्रत्येक वोटर को वोटरशिप की रकम 6 हजार रुपये महीने भले ही न मिल पाया हो, किन्तु छोटे किसानों को रु- 500 प्रतिमाह मिल रहा है। लेकिन उन लोगों को नहीं मिल रहा है, जिनके पास न तो पेट भरने के लिए खेत है, और न ही रोजगार है। मार्च 2020 में कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन ने उन लोगों ने बेरोजगारी और भूख की विभीषिका झेली। अगर वोटरशिप का प्रस्ताव संसद में पेश न हुआ होता, तो सरकार ने लॉकडाउन के दौरान लोगों के खाते में एक पैसा भी न डाला होता। अगर वोटरशिप का प्रस्ताव संसद से पारित हो गया होता, तो लोगों को लॉकडाउन में भुखमरी और पलायन की विभीषिका न झेलनी पड़ती।
यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि किसानों में मजदूरों की तुलना में आर्थिक ताकत और एकता अधिक है। किसानों के संगठन मजदूरों की तुलना में अधिक मजबूत होते हैं। किसानों द्वारा आक्रामक आंदोलन किया गया। तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिये केन्द्र सरकार मजबूर हो गई। यह किसानों की मजबूती का सुबूत है। वोटर जब कभी इस तरह का आक्रामक आंदोलन करेगा, तभी वोटरशिप का अधिकार वोटरों को मिल सकेगा। तभी लोकतंत्र के लाभ में वोटर को भी हिस्सा मिल सकेगा। तभी लोकतंत्र पैदा हो सकेगा। यह ध्यान रखना चाहिये कि केवल चुनाव करा देने से लोकतंत्र पैदा नहीं होता।
कांग्रेस ने भी 2019 के चुनाव से पहले गरीबों को 6000 रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की थी। किन्तु भाजपा की तरह कांग्रेस ने भी न तो वोटरशिप का नाम लिया और न ही वोटरशिप के जन्म की कहानी ही लोगों को बतायी। जनता की जेब से पैसा खींचकर धनवानों की जेब में डालने वाली बड़ी पार्टियां आम जनता पर मेहरबान क्यों हो गयी हैं। पुस्तक के इस संस्करण में इस विषय में भी जानकारी दी गयी है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत पुस्तक के नौ संस्करण ‘‘वोटरशिप लाओ, गरीबी हटाओ’’ के नाम से प्रकाशित किये गये हैं। दसवें संस्करण को पाठकों की सलाह पर ‘‘कैसे पाएं वोटर पेंशन’’ के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। आपसे निवेदन है इस पुस्तक का प्रचार-प्रसार करके देश व दुनिया भर में चल रहे नकली लोकतंत्र को असली लोकतंत्र बनाने और देश व दुनिया की राजनीति को सुधारने के काम में आप हमारे सहयोगी बनें। अपनी-अपनी पार्टियों से मोह त्याग कर विश्व परिवर्तन मिशन के लिये काम कर रहे मनपसंद संगठन व मनपसंद पार्टी से जुड़ें। जिससे हर सज्जन को सत्ता तक पंहुचाया जा सके व हर वोटर को संवृद्धि तक।
05 अप्रैल,2022, नई दिल्ली विश्वात्मा
वोटरशिप (वोटर पेंशन) का प्रस्ताव-संक्षिप्त परिचय
वोटरशिप का प्रस्तावविश्वात्मा उर्फ भरत गांधी व अन्य ने संसद में पेश किया था। प्रस्ताव केा याचिका के रूप में संसद के दोनों सदनों में पेश किया गया था। यह याचिका 137 संसद सदस्यों ने सन् 2005 में पेश की थी। इस प्रस्ताव में वोटरों की साझी सम्पत्ति की पहचान की गई है। याचिका में इस बात की वकालत की गई है कि साझी सम्पत्ति का किराया देश के सभी वोटरों में बंटना चाहिये। समान रूप से बंटना चाहिये। हर महीने बंटना चाहिये। यह रकम बांटने का कानून बन जाये तो कम से कम रु- 8435/- हर महीने सभी वोटरों को मिल सकते हैं। इस रकम की गणना सन् 2019 की कीमतों पर की गई है। इसकी गणना का फार्मूला भी संसद में पेश किया जा चुका है।
देश की आधी से अधिक आय वोटरों की साझी सम्पत्ति से पैदा होती है। यह याचिकाकर्ताओं का तर्क है। उनका तर्क है कि यदि देश की कुल आय की आधी रकम हर मतकर्ता (वोटर) को मिलनी चाहिये। मिलनी चाहिये। हर महीने मिलनी चाहिये। काम की शर्त के बगैर मिलनी चाहिये। उनकी सम्पत्ति के किराये के रूप में मिलनी चाहिये। सरकार के माध्यम से मिलनी चाहिये। मंहगाई भत्ता जोड़ देने पर यह रकम और भी बढ़ सकती है।
याचिकाकर्ताओं व उसे संसद के दोनों सदनों में वोटरशिप याचिका पेश करने वाले संसद सदस्याें का तर्क है कि यदि वोटरशिप का अधिकार वोटरों को मिल जाता है, तो उनकी हैसियत आजाद देश के गुलाम नागरिक की नही रह जाएगी_ अपितु आजाद नागरिक की हो जाएगी। क्योंकि बाजार दर व न्यूनतम मजदूरी दर से निर्धारित दिहाड़ी व वेतन की रकम देश की औसत आमदनी की तुलना में बहुत ही कम होती है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि मतकर्ता (वोटर) संसद का निर्माता है। संसद विधि (कानून) बनाती है। इसलिये वोटर विधि बनाने वाला विधाता है। संसद प्रधानमंत्री को पैदा करती है। प्रधानमंत्री वित्त मंत्रलय व करेंसी नोट छापने वाली रिजर्व बैंक का निर्माण करते हैं। रिजर्व बैंक व उसके द्वारा संचालित शेयर बाजार की ताकत से सम्पन्न लोगों के धनार्जन की क्षमता बढ़ जाती है। सम्पन्न लोगों के इस बढ़े धन में से सरकारी कर्मचारी अपना हिस्सा टैक्स के रूप में ले लेते हैं। लेकिन वोटरों के हिस्से को अब तक मान्यता ही नही दी गयी। उसके लिए सम्पन्न लोगों पर कोई टैक्स ही नहीं लगाया गया। विधि निर्माण के बदले किसी भी कर का कोई हिस्सा सीधे वोटरों तक पहुंचाया ही नहीं जाता।
अमीरों की अमीरी बढ़ाने के एवज में संसद के कर्मचारी अपना हिस्सा ले लेते है। लेकिन मतकर्ता (वोटर) अपना हिस्सा नहीं पाता। यही कारण है कि उन मतकर्ताओं (वोटरों) की हैसियत देश में घरेलू नागरिक की नही बन पायी, घरेलू नौकर की बन गई। खासकर वे वोटर, जिनके पास बैंक बैलेंस नही है_ जो हर महीने सरकार से अपने कानून रूपी मकान का किराया नही पाते और जो पूंजीविहीन हैं। देश के पूंजीधारी लोगों ने देश के मालिक की हैसियत प्राप्त कर ली है। पूंजीविहीन लोग उनके नौकर व दास की हैसियत में चले गये हैं। जबकि राज्य की नजर में दोनों एक ही वोट के अधिकारी हैं। दोनों समान हैं। दोनों मतकर्ता (वोटर) हैं।
संसद में पेश याचिका में कहा गया है कि वोटरशिप के अधिकार के बगैर वोट का अधिकार निरर्थक हो गया है। वोट के अधिकार का लाभ केवल राजनीतिकर्मी ही उठा सकते हैं। मतकर्ता (वोटर) नहीं। याचिका में कहा गया है कि याचिका वोटरशिप अधिकार को देश व देश के परिवारों की संवृद्धि के बीच मौजूद खाई में बनाया जाने वाला प्रस्तावित सेतु मानती है।
वोटरशिप (वोटर पेंशन) क्या है?
1) यह स्कॉलरशिप की तर्ज पर नया शब्द है।
2) यह जीडीपी में मशीनों के हिस्से में मतकर्ता का हिस्सा है।
3) यह निजी सम्पत्ति व निजी आय में राजव्यवस्था का हिस्सा है। इस हिस्से में राजव्यवस्था के निर्माताओं यानी वोटरों का लाभांश है।
4) यह राजव्यवस्था व कानून निर्माण की मतकर्ता (वोटर) को मिलने वाली फीस है।
5) यह लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों की तरह केन्द्रीय स्तम्भ यानी मतकर्ता को मिलने वाली फीस है।
6) यह साझी सम्पत्ति के किराये में मतकर्ता का हिस्सा है।
7) यह विकास में आम आदमी की भागीदारी का उपाय है।
8) यह आर्थिक लोकतंत्र व आर्थिक आजादी का उपाय है।
9) यह अपनी मर्जी का काम करने की आजादी पाने का उपाय है।
10)यह गरिमा के साथ हर नागरिक को जीवन जीने का अधिकार पाने का उपाय है।
11) यह नकली लोकतंत्र को असली लोकतंत्र बनाने का उपाय है।
12) यह जनसंख्या नियंत्रण का उपाय है।
13) यह चुनावों में वोटिंग प्रतिशत बढ़ाने का उपाय है।
वोटर पेंशन क्यों?
1) राजशाही के दौर में माना जाता था कि राजा को राजगद्दी पर भगवान बैठाता है। लोकतंत्र के दौर में राजा को राजगद्दी पर भगवान की बजाय वोटर भेजने लगा। देश की समस्त सम्पत्ति का मालिक राजशाही के दौर में भगवान होता था। लोकतंत्र में देश की सम्पत्ति का मालिक बन गया वोटर। लोकतंत्र सन् 1789 में ही आ गया। किन्तु वोटरों में सम्पत्ति का समान बटवारा आज तक न हुआ। वोटरों की सम्पत्ति अवैध कब्जाधारियों के पास सरकार ने आज तक छोड़ रखा है। अवैध कब्जा कराने के लिये सरकार के लोग कब्जाधारियों से स्टाम्प ड्यूटी के नाम पर मोटी रकम रिश्वत में लेते हैं। स्पष्ट है कि कम सम्पत्ति के वोटर मालिक हैं। ज्यादा सम्पत्ति के कब्जाधारी वोटरों के किरायेदार हैं। किरायेदार से वोटर को किराया मिलना ही चाहिये। यही किराया वोटरशिप है।
2) डंकेल (ग्ैाट) समझौते के कारण पूरे विश्व की बाजार साझी हो गई। अब अर्थव्यवस्था में मशीनीकरण मजबूरी बन गई है। कम्प्यूटर ने पढ़े-लिखों का काम छीन लिया। बुल्डोजर-ट्रैक्टर व जेसीबी मशीनों ने अनपढ़ों का काम छीन लिया। अतः अब हर हाथ को रोजगार देना असंभव है। अब तक बलात् कार्य को रोजगार मानना मजबूरी थी। किन्तु अब नहीं है।
3) केवल जीने के लिए जरूरी पैसा पाने के लिए काम की शर्त लगाना आर्थिक गुलामी है। पैसे की मजबूरी में काम उन्हें करना चाहिए, जो रोटी नहीं, वैभव चाहते हैं।
4) वोटर (कानून बनाने वाले) कानून बनाने की फीस अब तक नहीं लेते थे। अब लेना चाहते हैं। कानूनों का फायदा उठाकर अमीर बनने वालों को यह फीस (वोटरशिप कोष के लिये कर) देना ही चाहिए। कानून बनाना स्वयं में काम है। वोटरशिप इस काम की फीस है।
5) आर्थिक गुलामी अब उत्पादन का जरिया नहीं रही।
6) यह डर निरर्थक है कि वोटरशिप से जनता में निकम्मापन फैलेगा। क्योकि निकम्मापन जनता की बेरोजगारी से कम खराब है। 7) विकास में हर आदमी को भागीदारी देने (प्दबसनेेपअम हतवूजी) का वोटरशिप से अच्छा कोई उपाय नहीं है। वोटरशिप का कोई विकल्प नहीं है। वोटरशिप अधिकांश वर्तमान समस्याओं का समाधान है।
विस्तार से जानने के लिए देखिये फ्संसद में वोटरशिपय् के नाम से प्रकाशित संसद में 137 सांसदों द्वारा पेश वोटरशिप संबंधी याचिेका (कीमत-रू- 350/)
वोटरशिप के लाभ
देश बहुत लंबे समय से कुछ समस्याओं से जूझ रहा है। वोटरशिप का प्रस्ताव उन्हें एक झटके में हल करने की क्षमता रखता है। वोटरशिप की रकम आर्थिक तंगी से पैदा होने वाली अशिक्षा, अपराधों और अराजक जनसंख्या वृद्धि को रोक देगी। भ्रष्टाचार पर प्रभावशाली रोक लग जायेगी। क्योंकि लोग अपने पैरों पर खड़े हो जायेंगे। सरकारी विभाग न के बराबर बचेंगे। वोटरशिप की रकम का छोटा सा हिस्सा वोट पाने वालों के पास जाये, ऐसा प्रस्ताव है। इससे राजनीति का काम करने के लिये नेताओं को पारिश्रमिक मिल जायेगा। इससे राजनैतिक वित्त की व्यवस्था पैदा हो जायेगी। जनता से संबंध बनाने व जन-संपर्क करने में आने वाले व्यय के बोझ से जनप्रतिनिधियों को मुक्ति मिल जाएगी।
इस व्यवस्था से ईमानदार लोग भी राजनीति में कामयाब हो सकेंगे। इस प्रकार राजनीतिज्ञों की नई पीढ़ी राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रभावशाली अंकुश लगा देगी। सीमाहीन अमीरों का पैसा बंट जायेगा तो उपभोक्तावाद के लिये पैसा ही नही होगा। वोटरशिप चारों तरफ व्याप्त भीषण आर्थिक विषमता को नियंत्रित कर देगी। वोटरशिप उन लोगों को पूरी गरिमा व सम्मान के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा, जो आज कठोर परिश्रम के बाद भी रहन-सहन के निम्न स्तर के लिए आरक्षित हैं। जिस प्रकार आर्थिक सहयोग बच्चों में माता-पिता के प्रति प्रेम-भाव पैदा करता है_ उसी प्रकार वोटरशिप की रकम नागरिकों में राष्ट्र के प्रति प्रेम पैदा करेगी।
वोटरशिप की रकम अनुसूचित जातियों व जन-जातियों के निर्धन वर्ग का सशक्तिकरण करेगी। अपने ऊपर कोई अत्याचार होने पर अत्याचारी के विरूद्ध संघर्ष करने में अब वे खुद सक्षम हो जाएंगे। अपने नेताओं पर से उनकी निर्भरता समाप्त हो जाएगी। वोटरशिप गरीब परिवारों में पैदा हुई प्रतिभाओं का संरक्षण करेगी। जिनका आज बड़ी तादाद में कत्ल हो रहा है।
वोटरशिप की रकम से लोकतंत्र अधिक लोगों के लिए स्वीकार्य हो सकेगा। मतकर्म (वोटिंग) प्रतिशत में वृद्धि हो सकेगी। प्राकृतिक आपदाओं में स्वचालित राहत प्रणाली पैदा हो जायेगी। वोटरशिप की मासिक रकम के लालच में आपदा से हुये नुकसान की भरपाई करने वाली कम्पनियां पैदा हो जायेंगी। वोटर पेंशन से बेरोजगारी से कराह रहे राष्ट्र की दिमागी विकलांगता का इलाज हो जायेगा। अनैच्छिक वेश्यावृत्ति से छुटकारा मिल जायेगा। अब पैसे की मजबूरी समाप्त हो जायेगी। महापुुरुषों की आत्माओं को शांति मिलेगी। अब जन-जन की आजादी का महापुुरुषों का सपना साकार हो जायेगा। वोटरशिप देने के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर अब टैक्स लगेगा। इसलिये देश का पैसा लूटकर विदेशों में नही ले जा पायेंगे।
वोटरशिप से लोकतंत्र के विकास का बीमा हो जायेगा। लोकतंत्र पर अब बहुसंख्यक समाज का खून पीने वाली व्यवस्था होने का आरोप नहीं लगेगा। बहुत से लोगों को रोजगार मिल जायेगा। लोगों के पास पैसा बढ़ेगा, तो लोग पैसा लेकर बाजार जायेंगे। उनकी मांगों को पूरा करने के लिये नये-नये कल-कारखाने लगेंगे। वोटरशिप का पैसा बांटने के लिये गांव-गांव बैंकों की शाखायें खोलनी पडेंगी। उनमें लोगों को भर्ती करना पडे़गा। वोटरशिप से हर लड़की की आमदनी हो जाने के कारण बहुओं की दहेज हत्या पर रोक लग जायेगी।
वोटरशिप प्रस्ताव से संबंधित संस्थाएं परम्परागत तीन स्तंभों वाली लोकतांत्रिक इमारत में चौथे नये स्तंभ के रूप में काम करने लगेंगी। संविधान की प्रस्तावना, उसके भाग-तीन के अनुच्छेद 14 व 15 और भाग चार के अनुच्छेद 38, 39, और 51 की भावनाएं वोटरशिप के प्रस्ताव से संतुष्ट हो सकेंगी। वोटरशिप की रकम सबके लिए भोजन, आवास, पेयजल और स्वास्थ्य की सुविधाएं उपलब्ध करा देगी।
आर्थिक आजादी क्या है?
यदि बैल मालिक से प्रेम करके ज्यादा अनाज पैदा करने लगे, तब भी बैल को रोटी नहीं, भूसा ही मिलेगा। भूसा खाने के लिए विवश बैल गरीब नहीं, गुलाम होते हैं। बैलों की तरह ही देश के गरीब नागरिक भी गरीब नहीं, कष्टात्मक काम कराने के लिये अरबपतियों द्वारा पाले गये गुलाम हैं। उन्हें मंदबुद्धि, निकम्मा, पिछले जन्म का पापी, शराबी, जुआरी व आलसी कहना या तो अज्ञान है, या उनके खिलाफ साजिश, या दोनों।
अधिकांश किसान जब ट्रैक्टर खरीद लेते हैं, तो बैलों को कटवा देते हैं। उसी प्रकार जब से सब काम करने के लिए मशीनें लग गइंर्, तब से कुछ लोग गरीबों को फालतू जनसंख्या मानने लगे हैं। गरीबों के घरों में जानबूझकर मंहगाई पैदा करके व पैसे की तंगी पैदा करके उन्हें मारने में लगे हैं। इस सोच के लोग एबी मानसिकता के होते हैं। अमीरी रेखा के ऊपर के ऐसे लोग प्रधानमंत्री कार्यालय व योजना/नीति आयोग को इसी काम पर लगाया गया है। देश में हो रही आत्महत्यायें आर्थिक नरसंहार की इसी नीति का परिणाम है।
इस आर्थिक नरसंहार को रोकने के लिए 137 संसद सदस्यों ने संसद में एक प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव सन् 2005 में पेश किया गया था। इसे वोटरशिप अधिकार कहा गया। किन्तु खरबपतियों ने पार्टियों के अध्यक्षों को धमका दिया। अध्यक्षों ने सांसदों को व्हिप कानून का डर दिखाया। सांसदों ने आगे बढ़ने की हिम्मत नही की। संसद में यह प्रस्ताव लटक गया। इसीलिये गरीबी, गुलामी व आत्महत्यायें जारी हैं।
रोटी के लिए साइकिल मोटर साइकिल वालों पर काम करने की शर्त लगाना और धनवानों को वैभव-विलास के साधन कानूनों से फ्री में देना आर्थिक गुलामी का सुबूत है। गरीबी पैसे की कमी के कारण नही होती, कानूनों के कारण होती है। गरीबी आर्थिक गुलामी वाले हरामखोरी रक्षक कानूनों का नतीजा है। आर्थिक गुलामी फोड़ा है। गरीबी इस फोड़े से बहने वाला मवाद। गरीबी उन्मूलन करने का मतलब होता है-मवाद की सफाई करना लेकिन फोड़े को बनाये रखना।
14 अगस्त 1947 की रात को ब्रिटेन की रानी ने भारत छोड़ा था। रानी ने भारत के नेताओं की कुर्सी के साथ-साथ देश की सारी सम्पत्ति का मालिकाना हक देश के सभी लोगों को सौंप दिया था। किन्तु सम्पत्ति पर 15 अगस्त के बाद भी वही लोग कब्जा जमाये रहे, जिन्होंने पहले से कब्जा किया हुआ था। यहां के नेताओं को कुर्सी मिल गई। किन्तु जनता को सम्पत्ति आज तक न मिली। अतः लोकतंत्र में गरीब नागरिकों की आर्थिक गुलामी का खात्मा गरीबों की मदद करने से नहीं होगा। वोटरों की साझी सम्पत्ति पर से कब्जा हटवाने से होगा। या इस सम्पत्ति का किराया वोटरों को हर महीना दिलाने से होगा। वोटरों की सम्पत्ति का यह किराया ही वोटरशिप है। वोटरशिप के बगैर आर्थिक आजादी असंभव है। आर्थिक आजादी के बगैर गरीबी का खात्मा असंभव है। वोटरशिप की रकम रोटी में अपने हिस्से जैसा है। काम करने से मिला पैसा भूसे में हिस्से जैसा है।
संसद में वोटरशिप संबंधी आंकड़े
सन् 2006-08 के दौरान नियम 168 के तहत संसद में वोटरशिपका प्रस्ताव पेश करने वाले सांसदों की संख्या- 137
लोकसभा के सांसदों की संख्या- 112
राज्य सभा के सांसदों की संख्या- 25
भाजपा के सदस्यों की संख्या- 54
सपा के सांसदों की संख्या- 19
बसपा व कांग्रेस के सांसदों की संख्या- 08
सीपीएम, सीपीआई, जद(यू) के सांसदों की संख्या- 00
आरजेडी व झामुमो के सांसदों की संख्या- 04
आरएसपी के सांसदों की संख्या- 03
बीजेडी, अगप के सांसदों की संख्या- 02
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वोटरशिप के समर्थन में जाने-माने लोग
दिनेश त्रिवेदी भारत सरकार के भूतपूर्व रेलवे मंत्री
जनेश्वर मिश्र जाने-माने समाजवादी नेता
मोहन सिंह जाने-माने समाजवादी नेता
रामजी लाल सुमन जाने-माने समाजवादी नेता
रवि प्रकाश वर्मा जाने-माने समाजवादी नेता
देवेन्द्र प्रसाद यादव बिहार के पूर्व सांसद
प्रियरंजन दाशमुंशी केन्द्र सरकार के पूर्व संसदीय कार्य मंत्री
प्रो- प्रसन्ना पटसानी उड़ीसा के जाने-माने सांसद
अवनी राय प- बंगाल के पूर्व सांसद, आर-एस-पी- प्रमुख
रामदास अठावले भारत सरकार के मंत्री व आ-पी-आई- प्रमुख
डॉ- अरुण कुमार शर्मा लखीमपुर, असम के सांसद
इसके अलावा 125 भूतपूर्व सांसद———–

वोटरशिप कानून न बन पाने का कारण
1) जो लोग केवल धनवानों का ही सम्मान करते हैं, उन्हीं को राष्ट्र मानते हैं, वे नकली राष्ट्रवादी होते हैं। ये लोग मानते हैं कि वोटरशिप का पैसा बंटने से देश के साइकिल वाले नागरिकों की मजदूरी का रेट बढ़ जायेगा। इससे खेत-कारखाने में पैदा होने वाली वस्तुओं की कीमत बढ़ जायेगी। इसलिए दूसरे देशों में इन वस्तुओं की बिक्री कम हो जायेगी। यानी निर्यात घट जायेगा। क्योंकि वोटरशिप का अधिकार केवल अपने देश में लागू हो रहा है। दूसरे देशों में लागू नहीं हो रहा है। इसलिए नकली राष्ट्रवादी अनादिकाल से बहुसंख्यक जनता को गुलाम व जान बूझकर पैसे की तंगी में बांधकर रखे रहे। वर्तमान में देशप्रेम और राष्ट्रवाद के नाम पर उनको आर्थिक गुलाम बनाकर रखे हुए हैं। भविष्य में इसी तरह हजारों सालों तक जातिभक्ति, धर्मभक्ति, देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के नाम पर गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। इस तरह के नकली राष्ट्रवादी इस झूठ के प्रचार में खुद लगे हैं । देश में यह बताने में बड़ी रकम खर्च कर रहे हैं। वे इस झूठ का प्रचार कर रहे हैं कि ‘वोटरशिप असम्भव है’_ ‘वोटरशिप व्यावहारिक नहीं है’। उनका विश्वास है कि इस झूठ के प्रचार से वे साइकिल और मोटरसाइकिल वालों को वोटरशिप आन्दोलन से नहीं जुड़ने देंगे। इसीलिए इस पुस्तक के लेखक विश्वात्मा भरत गांधी के नीति निर्देशन में एक नई पार्टी बनाई गई। इसी पार्टी का नाम वोटर्स पार्टी इंटरनेशनल है। यह पार्टी अन्य तमाम पार्टियों और गैर राजनीतिक संगठनों के साथ एक मंच बनाकर काम कर रही है। इस मंच को ‘विश्व परिवर्तन मंच’ कहा जाता है। यह मंच लिखित संविधान पर काम कर रही है। इस मंच के सभी संगठन दक्षिण एशियाई देशों की एक साझी सरकार, साझी संसद, साझा न्यायालय बनाने के लिये काम कर रहे हैं। यह मंच दक्षिण एशियाई देशों का साझा चुनाव आयोग, साझा आयकर विभाग, साझी मुद्रा, साझी सेना बनवाने के उद्देश्य के साथ काम कर रहा है। यह मंच पहले चरण में दक्षिण एशियाई देशों का और दूसरे चरण में पूरी दुनिया के सभी देशों का साझात करवाने की रणनीति के साथ काम कर रहा है। इस मंच से सभी सदस्य संगठनहर देश में मजदूरी का रेट बराबर करने की दिशा में प्रयास कर रहे है। और सभी देशों का साझा श्रम मंत्रलय बनाने के लिए भी कार्य कर रहे हैं।
2) पैसे के सुख ने अगड़ी जातियों के घर-घर में नेता पैदा कर दिया। वोटरशिप का पैसा मिलेगा, तो दलितों के घर में भी नेता पैदा हो जाएंगे। इससे सभी दलित किसी एक ही दलित नेता के झंडे तले खड़े नहीं होंगे। इस भय से रामदास अठावले के अलावा अधिकांश दलित नेताओं ने संसद में वोटरशिप का विरोध किया।
3) गरीबी खत्म हो जाने पर गरीब लोग कम्युनिस्ट पार्टी के शासन की जरूरत ही नहीं महसूस करेंगे। यह नतीजा निकाल कर कम्युनिस्ट पार्टियों ने विरोध किया।
4) वोटरशिप से मजदूरी बढ़ जाएगी। इस भविष्यवाणी को सही मानकर मजदूरों की मेहनत से अमीरी का सुख भोगने वालों ने विरोध किया।
5) जो पार्टी अध्यक्ष वोटरशिप का समर्थन करेगा, उसे चुनाव लड़ने के लिए अमीर लोग चंदा देना बंद कर देंगे। अमीरों की इस धमकी के दबाव में आ कर बड़ी पार्टियों के अध्यक्षों ने वोटरशिप के समर्थन में आगे कुछ भी करने से सांसदों को रोका।
क्या संभव है वोटरशिप?
1) उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी जी को भेजी गई अपनी रपट दिनांक-02 दिसम्बर, 2011 के द्वारा संसदीय सचिवालय के विशेषज्ञों की कमेटी ने यह मान लिया कि वोटरशिप देना संभव है, व उचित है। संसद में विचाराधीन वोटरशिप के प्रस्ताव की जांच करने के लिये इस गोयल कमेटी का गठन उपराष्ट्रपति ने ही किया था।
2) कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि राशन, पंजीरी, मिड-डे-मील, तमाम तरह की पेंशनें, सब्सिडी आदि मदों पर जो रकम पहले से खर्च हो रही है, उसे सीधे वोटरों के खाते भेजा जा सकता है। सरकारें खेल-कूद और नयनसुख में जितना पैसा खर्च करती हैं, कई महीने की रकम तो इसी पैसे से दी जा सकती है। आखिर खेल-कूद और नयनसुख रोटी से ज्यादा कीमती तो नहीं है! सरकार ने ये बात मान ली। सन् 2010 में नकद अंतरण योजना शुरू की। गैस सिलेण्डर का पैसा इसी योजना से लोगों को मिल रहा है। आगे चलकर डीजल, खाद, राशन आदि सुविधाये भी लोगों के बैंक खाते में नकद मिलेंगी।
3) वोटरशिप की रकम सबको एकमुश्त नहीं दे सकते। तो पहली किस्त में गरीब महिलाओं को, दूसरी किस्त में सभी गरीबों को, तीसरी किस्त में सभी महिलाओं को, चौथी किस्त में सभी वोटरों को देना संभव है। ए-टी-एम- मशीन आने से पहले वोटरशिप असंभव थी। अब संभव है।
4) जनता को गुलाम बनाकर काम कराने की नीयत रखने वाली पार्टियों को अब वोट मिलनी बंद हो जाएगी। पार्टी चलाना है, तो वोटरशिप का संसद में समर्थन करना होगा।
5) अमीरों पर प्रस्तावित टैक्स लगाने के बाद भी पैसा पूरा न पड़े। तभी तो कह सकते हैं कि वोटरशिप देने के लिये पैसा नहीं है। अभी तो वोटरशिप कि लिये टैक्स ही नही लगाया गया।
6) सन् 1947 तक पैसा लंदन से खर्च होता था। 1950 से पैसा दिल्ली व प्रदेशों की राजधानियों से खर्च होने लगा। 1967 में प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने पैसे को जिले-जिले भेज दिया। 1972 में इंदिरा गांधी ने ब्लाकें बनाकर पैसे को सीधे ब्लाकों तक पहँुचा दिया। 1985 में पंचायती राज कानून से पैसा गाँव-गाँव तक पहुँच गया। अब पैसे को परिवारों तक पहँुचाने की बारी है। वोटरशिप से यही होने जा रहा है।
7) जब ‘सिटीजन्स बेसिक इनकम’ के नाम से ब्राजील, नामीबिया, अलास्का जैसे दुनिया के 24 देशों में चल रहा यह अभियान सफल हो सकता है, तो भारत में सफल क्यों नही हो सकता?
8) दिल्ली में मैट्रो बनाना श्रीधरन के पहले वाले इंजीनियरों के लिये संभव नही हुआ। किन्तु श्रीधरन ने बना दिया। अगर कोई कहता है कि वोटरशिप लागू करना संभव नही है, तो वह अपनी कमजोरी बता रहा है। इससे केवल यह समझना चाहिए। कि वोटरशिप लागू करना इसके आंदोलनकारियों के लिये तो संभव है। किन्तु दूसरे लोगों के लिये यह वाकई असंभव है। हर काम हर आदमी के लिये संभव होता ही नही। बड़ी पार्टियों को अगर यह काम असंभव लगता है तो उन्हें थोडे़ समय के लिये ऐसा काम करना चाहिये। जिससे कि वोटरशिप के आंदोलनकारी सरकार बनाकर वोटरशिप लागू कर सकें।
9) दुर्योधन महाभारत की लड़ाई जीत लेता, तो मेहनत-मजदूरी करके पेट पाल रहे पाण्डवों के वंशजों को इसी तरह जवाब मिलता कि-फ्आप लोग रोजगार मांगो। अपने पुरखों की सम्पत्ति में हिस्सा (वोटरशिप) क्यों मांगते हो? वोटरशिप देने के लिये पैसा ही कहां है? हम राजाओं की तंगी देखो, हमारे परिवार में तो केवल 10 कारें ही हैं। हम तो इतने में ही गुजारा करने को मजबूर हैं। इतनी तंगी में वोटरशिप के लिये टैक्स कैसे दें?य् स्पष्ट है कि जो लोग वोटरशिप असंभव मानते हैं, वे या तो सरकारी आंकड़ों से बेखबर हैं। या दुर्योधन के उक्त वंशजों की तरह जानबूझकर लोगों में भ्रम फैला रहे हैं।
10)मनरेगा कानून बन रहा था, तो हायतौबा मचाने वालों ने कहा था कि गरीबों को रोजगार की गारंटी देने के कानून पर 300 हजार करोड़ रूपये खर्च होगा। आज इस पर केवल 40 हजार करोड़ रूपये खर्च करके ही काम चल गया।
11) खाद्य सुरक्षा कानून के मामले में भी गरीबों के दुश्मनों ने फिर शोरगुल मचाना शुरू किया कि इस पर 350 हजार करोड़ रूपये खर्च होंगे। असलियत में कितना खर्च होगा। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
विस्तार से जानने के लिए पढ़ें पुस्तक के रूप में प्रकाशित संसद में 137 संसद सदस्यों द्वारा पेश वोटरशिप संबंधी याचिका (कीमत-रू- 350/)
वोटरशिप के लिए धन का स्रोत
भारत से धन का स्रोत-
1- जनकल्याण बजट की सीधी फण्डिंग (लगभग 14 लाख 51 हजार करोड़) (खाद्य सब्सिडी – 11000 करोड़_ पेट्रोलियम सब्सिीडी – 2500 करोड़, स्वास्थ्य योजनाओं पर खर्च -2 लाख करोड़_ पेंशन पर खर्च-6 लाख करोड़, दुर्घटना बीमा खर्च-13000 करोड़_ फर्टिलाइजर सब्सिडी-7000 करोड़, मनरेगा-1-51 लाख करोड़_ बाल विकास योजना-26000 करोड़, इन्दिरा आवास योजना-20000 करोड़_ मातृ एवं बाल सुरक्षा-30,000 करोड़, राज्य सरकारों द्वारा प्रदत्त सब्सिडी-50,000 करोड_ केन्द्र सरकार द्वारा प्रदत्त कुल सब्सिडी-1-6 केन्द्र सरकार की नकद अंतरण योजना की रकम-लगभग 3-5 लाख करोड़)
2- अमीरों को ‘अमीर’ कहने का कानून बनाना। अमीरी रेखा (रु- 50 करोड़) से ऊपर के लोगों पर सम्पत्ति कर।
3- राजव्यवस्था कर।
धरती का साझा स्रोत-
1 मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (डक्ळ) दायित्व के अंतर्गत भारत को विकसत देशों से प्राप्त रकम, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (डछब्े)पर कॉरपोरेट टैक्स, विश्व व्यापारियों की आय व सम्पत्ति पर यू-एन-ओ- द्वारा वसूला गया टैक्स।
2 यू-एन-ओ- में सभी देशों की जीडीपी के 7 प्रतिशत कर से जमा कोष से प्राप्त भारत का हिस्सा।
विस्तार से जानने के लिए देखिये पुस्तक के रूप में प्रकाशित संसद में 137 संसद सदस्यों द्वारा पेश वोटरशिप संबंधी याचिका (कीमत-रू- 350/)
वोटरशिप पर सवाल-जवाब
प्रश्न- वोटरशिप देने के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है। कहां से देगी?
उत्तर- वोटर के हिस्से में जितना भी है, उसका आधा ही देना है।
प्रश्न- वोटरश्पि का पैसा देने के लिये इतना पैसा आएगा कहाँ से?
उत्तर- यह पैसा आएगा अरबपतियों की जमीन-जायदाद पर सम्पत्ति कर लगाकर, सरकार के फालतू विभागों को बंद करके, विदेश के अमीरों की आमदनी पर टैक्स लगाकर, देश- विदेश में जमा काले धन को बाहर लाकर।
प्रश्न- देश पर कर्ज है। वोटरशिप देना संभव कैसे है?
उत्तर-इसीलिये वोटर अपने हिस्से का पैसा अपने पास ले रहे हैं। वोटर तीन महीने की पेंशन दान करके अपने हिस्से का सारा कर्ज उतार देंगे।
प्रश्न- जनसंख्या ज्यादा है। सबको देने के लिये पैसा कहां से आयेगा?
उत्त्र- जनसंख्या की अधिकता अमीर घरों में नहीं है। केवल गरीब घरों में है। वोटर पेंशन से पैसा घर-घर पहुँच जाएगा। इस पैसे से सभी घराें की लड़कियां पढ़-लिख जाएंगी। पढ़ी-लिखी लड़कियां जनसंख्या की अधिकता पर खुद ब खुद रोंक लगा देंगी।
प्रश्न- पेंशन पाने के बाद कोई आदमी काम क्यों करेगा?
उत्तर- वह काम करेगा पड़ोसियों से ज्यादा अमीर बनने के लिये और ज्यादा इज्जत पाने के लिये। उससे कहिये कि जिनको हर महीने विरासत कानून से प्राप्त धन से हजाराें-लाखों रुपया बैंक से ब्याज मिलता है, वे भी तो काम करते हैं। 100 में तीन लोग तो पैसे की लालच में काम करते ही नहीं। 97 लोग काम करते थे, करते हैं, और करते रहेंगे। न विश्वास हो तो वोटरशिप कानून बनाकर देख लीजिये।
प्रश्न- पैसा जनता में बांट देने से पड़ोसी देशों की सरकारें अपने देश की सरकार से ज्यादा अमीर हो जायेंगी!
उत्तर- दोनों सरकारों के बीच पंचायत करने वाली तीसरी साझी सरकार बनाने का कानून भी बनाया जा रहा है। साझी सरकार पड़ोसी सरकार से भी पैसा लेगी, केवल अपनी ही सरकार को पेेंशन का पैसा नहीं देना है। सभी सरकारों को देना है। इण्टरनेट के युग में जो काम एक देश में होगा, वह दूसरे देश में होकर रहेगा।
प्रश्न- वोटरशिप की रकम बंटेगी, तो विकास का पैसा ही खर्च हो जायेगा। फिर विकास कैसे होगा?
उत्तर- इसीलिए अपने हिस्से की आधी रकम छोड़ रहे हैं।
प्रश्न- जब तक जनसंख्या अधिक है, तब तक वोटर पेंशन से गरीबी कैसे जायेगी?
उत्तर- गरीबी का कारण यह है कि अमीर लोग ब्याज और किराये के कानूनों से दूसरों का पैसा अपने पास खींच लेते है। सरकार उत्तराधिकार कानून से बाप की दौलत उसके बेटे को फ्री में दे देती है। इस पर कोई लगाम नहीं है। जब बेटे को बिना कुछ किए-धरे दौलत मिलती है तो उस दौलत के चुबंक से वह गरीबों का पैसा खींचने लगता है। अगर उत्तराधिकार कानून बना रहता है तो जनसंख्या कम हो जाने पर भी गरीबों का पैसा अमीर लोग खींचते रहेंगे। गरीब फिर भी गरीब बने रहेंगे। सच्चाई तो यह है कि यह गरीबी नहीं, गुलामी है। गुलामी रहेगी, तो गरीबी भी रहेगी। फोड़ा रहेगा तो मवाद बहेगी ही।
प्रश्न-वोटर पेंशन के पैसे से लोग शराब पी गये तो क्या होगा?
उत्तर-सभी लोग शराब नहीं पीते। शराबियों के चक्कर में शराब न पीने वालों की पेंशन क्यों छीनी जाये? अब शराब पीने वालों की पत्नियां शराबी पति की गुलाम नहीं होंगी। वोटर पेंशन से वे अपने परिवार को चला लेंगी। शराब की पैदावार पर सरकार रोक क्यों नही लगाती? शराब पीने वाले अमीरों की सम्पत्ति सरकार छीनती क्यों नही?
प्रश्न-वोटर पेंशन से भारत रूस की तरह कमजोर हो गया तो?
उत्तर-इसीलिए लोगों के बीच पूर्ण आर्थिक समानता की मांग नहीं की जा रही है। अपितु न्यूनतम आर्थिक समता की मांग की जा रही है। यदि सरकार 8000-10,000 रूपया वोटर पेंशन देती है तो इतनी समानता सभी लोगों में आ जाएगी। लेकिन अमीर बनने का मौका फिर भी रहेगा।
प्रश्न- गरीब अपने कर्म का फल भोग रहे हैं। वोटरशिप की रकम देकर भगवान के विधान कों भंग करना क्या गलत नहीं है?
उत्तर-कर्म का फल तो भोगना ठीक है। लेकिन कानूनों का फल भोगना ठीक नहीं है। सभी लोग परमपिता की संतान होते हैं। वोटरिंशप यदि इन संतानों को मिलेगी तो परमपिता वैसे ही खुश होगा, जैसे कोई बाप अपने बेटे की संमृद्धि को देखकर खुश होता है। गरीबी कानूनफल है। गरीबी कर्मफल नहीं है।
प्रश्न-सरकार वोटर पेेंशन देगी तो क्यामंहगाई नही बढ़ जाएगी?
उत्तर-इसीलिए हम वोटर पेंशन के साथ-साथ मंहगाई भत्ता भी मांग रहे हैं। यह भत्ता सरकारी कर्मचारियों को पहले से मिलता है। आखिर जब मंहगाई सबके लिए बढ़ती है तो भत्ता भी सबको मिलना चाहिए। जब देश में पैसा, मशीन, व काम करने वाले हैं तो उत्पादन कम नहीं हो सकता। उत्पादन कम नहीं होगा, तो मंहगाई नहीं बढ़ सकती।
अन्य प्रश्नों के उत्तरों के लिए देखिये पुस्तक के रूप में प्रकाशित संसद में 137 संसद सदस्यों द्वारा पेश वोटरशिप संबंधी याचिका (कीमत- रू- 350/-) व जनोपनिषद (कीमत-रू- 350/-)
लोकसभा में प्रस्तुत याचिका की प्रार्थना
लोकसभा के चुनाव में मतदान का अधिकार रखने वाले भारत संघ के सभी वोटरों को, इस याचिका में मतदातावृत्ति या वोटरशिप के नाम से परिभाषित, जन्म के आधार पर वित्तीय अधिकार देकर, लोकतंत्र का और अधिक न्यायप्रिय ढांचा विकसित करने, संघ के नागरिकों के बीच जन्म के आधार पर बरते जा रहे आर्थिक भेदभाव पर अंकुश लगाने,
न्यूनतम आर्थिक समता कायम करने, भारत संघ के सभी वोटरों की नियमित रूप से आमदनी का जरिया सुनिश्चित करने, अत्यंत गरीब परिवारों के बच्चाें की शादी विवाह संभव बनाने में, मानवीय गरिमा व सुरक्षा के साथ जी पाने में, और आर्थिक तंगी के कारण हो रही आत्महत्याओं को रोकने में, इन परिवारों को सक्षम बनाने, मतदातावृत्ति के माध्यम से प्रमुख याचिकाकर्ता द्वारा अहिंसक जीवन जी पाना व विवाह कर पाना संभव बनाने, के संबंध में आवश्यक कार्यवाही करने के लिए अधोहस्ताक्षरी एवं अन्य याचिका देने वाले भारत की माननीय लोकसभा से विनम्र प्रार्थना करते हैं।
संसद में बहस के लिये सांसदों द्वारा दिया गया नोटिस
(नियम 193 के अंतर्गत लोकसभा में चर्चा के लिए 33 सांसदों द्वारा बजट सत्र 2008 में दिये गये नोटिस के साथ संलग्न व्याख्यात्मक टिप्पणी)
आर्थिक उदारीकरण की नीतियां अपना लेने के बाद अब आधुनिकतम ऑटोमैटिक मशीनोें से उत्पादन करना सभी देशों के लिए अनिवार्य हो गया है। क्योंकि ऐसा करके ही अच्छी से अच्छी गुणवत्ता के सामान को कम से कम कीमत में बेचना संभव है। विश्व अर्थव्यवस्था के वर्तमान युग में यदि शरीर श्रम करने वालों को मजदूरी की बाजार दर पर छोड़ा जाएगा, तो इनकी दशा घरेलू नौकर या पालतू बैल जैसी ही होगी। देश की समृद्धि से इनका नाता कटा ही रहेगा। लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति जरूरतमंद की बजाय मतकर्ता (वोटर) की हैसियत से ही देश की सकल घरेलू सम्पत्ति, आय व उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी का दावा कर सकता है।
एक लोकतांत्रिक समाज में जहाँ मतकर्ता (वोटर) सम्प्रभु है, वहाँ उसकी हैसियत मकान के मालिक की है, और राज्य की हैसियत चौकीदार व प्रबंधक की। क्या घर का चौकीदार घर के मालिक पर दया दिखा सकता है? इसीलिए श्रमिकों की आर्थिक दुर्दशा पर तरस खाकर दयालुता दिखाते हुए एक लोकतांत्रिक राज्य गरीबी भत्ता, बेरोजगारी भत्ता या सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कुछ रकम नहीं दे सकता।
यदि राज्य मतकर्ता (वोटर) के तौर पर श्रमिकों को कुछ नकद रकम देना चाहेगा, तो इस रकम का निर्धारण उनकी न्यूनतम आवश्यकता के सूत्र पर नही, राष्ट्र की कुल औसत सम्पत्ति व औसत उत्पादन में उनके न्यूनतम हिस्से के सूत्र पर ही किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो अन्य देशों की तुलना में जरूरतमंदों की अति विशाल संख्या को देखते हुए इस रकम का भुगतान केवल शरीर श्रम करने वालों, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, बेरोजगारों, गरीबों या जरूरतमंदों को ही नही, अपितु सभी वोटरों को करना होगा।
अर्थव्यवस्था में क्या पैदा हो और कितनी मात्र में पैदा हो, मतदातावृत्ति के कारण इस तरह के आर्थिक फैसलों में प्रत्येक मतकर्ता (वोटर) की जरूरतों का धयान रखना आवश्यक हो जाएगा। जिस प्रकार आर्थिक विरासत सम्बन्धी कानूनों के कारण अमीर लोगों के बच्चों को अमीरी का आरक्षण मिलता है_ उसी प्रकार मतदातावृत्ति से क्रयशक्ति की कुछ मात्र गरीबों के नाम से अवश्य आरक्षित हो जाए। इससे मतदान प्रतिशत बढ़ेगा। लोकतंत्र की स्वीकार्यता बढ़ेगी। इसकी उम्र बढ़ेगी और आज की तुलना में राज्य अधिक लोगों को सुरक्षा घेरे में ले सकेगा। यही एकमात्र प्रस्ताव है। जो गरीबों, श्रमिकों व किसानों के परिवारों को आत्महत्या करने से बचा सकता है।
1 दिसम्बर 2007 को राज्यसभा में केन्द्रीय कृषि मंत्री ने एक लिखित उत्तर में यह स्वीकार किया है कि 1997 से 2005 की अवधि में भारत में कुल 1,49,244 किसानों ने आत्महत्या की। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ो के अनुसार इसके पहले सन् 1995 तक कुल 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके थे। औसतन 10 किसान रोज आत्महत्या करते हैं। सरकार को प्रतिवर्ष 5760 किसानों के आत्महत्या करने की सूचना मिलती रही है। यदि वोटरशिप अधिकार कानून बन जाये तो किसानाें की आत्महत्याओं को पूरी तरह रोका जा सकता है।
असंगठित क्षेत्र पर गठित अर्जुन सेन गुप्ता आयोग ने अपनी रपट में कहा है कि देश के 77 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रूपए की कमाई भी नही कर पा रहे है। इससे स्पष्ट है कि बेहतर विकास दर के बावजूद देश के अधिकांश परिवारों में आर्थिक आपातकाल की परिस्थिति पैदा हो गई है। परिस्थतियां इतनी विकट हो गई हैं कि संसद जितने दिन मतदातावृत्ति या वोटरशिप पर बहस कराने व कानून बनाने में विलम्ब करती है, उतने अधिक लोग आत्महत्या करते रहेंगे।
प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कई बार सार्वजनिक वक्तव्य देकर आत्महत्याओं पर खेद व्यक्त कर चुके हैं और यह मान चुके हैं कि देश में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से पैदा हो रही संवृद्धि गरीबों तक नही पहुंच पा रही है। चूंकि केन्द्र सरकार इस तथ्य को स्वीकार करते हुए भी आत्महत्याओं को रोकने व गरीबों तक संवृद्धि के वितरण (इमदमपिज ेींतपदह) का कोई उपाय लागू नही कर पा रही है। अतः सरकार की असहायता को देखते हुए जरूरी हो गया है कि संसद में नियम 193 के अंतर्गत मतदातावृत्ति या वोटरशिप प्रस्ताव पर बहस हो जिसमें इन दोनों समस्याओं का प्रभावशाली समाधान पेश किया गया है।
वोटरशिप अधिकार के संघर्ष का इतिहास
1) सन्-1848-49 में सबसे पहले यूरोपियन विचारक कार्लियर (ब्ींतसपमत) और जे- एस- मिल (श्रवीदण् ैजनंतज डपसस)ने अपनी पुस्तक ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ में कहा था कि सरकार को चाहिये कि कुछ रकम वह हर नागरिक को काम कराये बिना दे, क्योंकि इस धरती पर जब कोई जन्म लेता है, तो प्रकृति की ओर से मिली कुछ सम्पत्ति उसके हिस्से में पहले से रहती है। राजशाही के दौर में यह कहकर लोगों को यह रकम देने से मना कर दिया गया था कि प्रजा का काम है-‘‘राजपरिवार के लिये काम करके राजपरिवार को सुख पंहुचाना’’। पैसा देने से प्रजा काम करना बंद कर देगी। राजपरिवार काम करेगा ही नहीं। तो फिर खेती-बाड़ी का काम कैसे होगा?
2) लगभग 100 साल बाद सन् 1965 में फिर यह बात उठायी ब्राजील के सांसद श्री फिलिप जे- पेरी ने। बाद में इस काम को संभाला एडवर्ड एम- सप्लिसी ने। इनके साथ जुड़े मजदूर नेता लूला डि-सिल्वा। इस मुद्दे पर चुनाव हुए और लूला डि-सिल्वा सन्-2003 में वहां के राष्टपति बने। लूला सरकार ने 8 जनवरी, 2004 को ‘बेसिक इनकम’ के नाम से कानून (छवण्ण्10ण्835ध2004)बनाकर लोगों को नकद देना शुरू कर दिया।
3) ब्राजील व नामीबिया की सफलता देखकर ‘बेसिक इनकम’ के नाम से वोटरशिप अधिकार के लिये नामीबिया, अर्जेटिना, ऑस्ट्रिया, आस्टेªलिया, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आयरलैण्ड, इटली, जापान, नीदरलैण्ड, न्युजीलैण्ड, साउथ अफ्रीका, साउथ कोरिया, स्पेन, स्वीडन, स्विटजरलैण्ड, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमरीका में भी तमाम संगठन व राजनीतिक पार्टियां संघर्षरत हैं। विस्तार से जानने के लिये देखें- ूूूण्अवजमतेीपचण्बवउ
4) भारत में वोटरशिप की अवधारणा की खोज सन्-1997 में एक मजदूर बाजार में हुई। राजनीति सुधारक श्री विश्वात्मा वहां सिविल सर्विसेस का कैरियर छोड़कर मजदूरी करने जाया करते थे। लेखक ंने 27 सितम्बर सन्-1993 को ‘किसी का रोजगार छीने बगैर अपने लिये आमदनी का अहिंसक जरिया पैदा करने’ का संकल्प लिया था। अपने शैक्षिक जीवन, डिग्री-प्रमाणपत्रें व सिविल सेवा के कैरियर का बहिष्कार कर दिया था। जवाब मिलने तक लेखक ने खुद को ‘भिक्षा पर जीने’ का फैसला किया। मेरठ की मजदूर बाजार में वह आमदनी का अहिंसक जरिया ढ़ूंढ़ते-ढ़ूंढ़ते पंहुचे थे। जब मजदूर बाजार में वोटरशिप की बात दिमाग में आयी, तब श्री विश्वात्मा ने इस विषय में पुस्तकें लिखने, संघर्ष करने व संसदीय मान्यता तक अविवाहित रहने, आमदनी व सम्पत्ति न पैदा करने, बैंक खाता न खोलने का संकल्प लिया। लेखक का संकल्प और सत्याग्रह आज 25 साल बाद भी अनवरत जारी है। वोटरशिप जन्मगाथा विस्तार से जानने के लिये देखें- ूूूण्उहबण्ूवतसकधअपेीूंजउंध
5) श्री विश्वात्मा भरत गांधी के नेतृत्व में स्थापित अराजनीतिक संगठन ‘आर्थिक आजादी आन्दोलन परिसंघ’ ने सन्-2005 में यह मामला 137 सांसदों के समर्थन से संसद में पेश किया। इसके 8 साल बाद यह मामला 2007 में पहली बार नेशनल मीडिया में आया। बाद में 02 दिसम्बर, 2011 को संसदीय सचिवालय ने वोटरशिप के लिये अपनी मंजूरी दे दी। सत्ताधारी दलों की मंजूरी न मिलने के कारण मामला अभी भी संसद में लम्बित है।
6) राज्य सभा के सचिवालय ने दिनांक 13 जुलाई, 2010 को प्रमुख याचिकाकर्ता यानी विश्वात्मा भरत गांधी को पत्र लिखकर पूछा कि फ्वोटरशिप के प्रस्ताव पर अर्थशास्त्रियों व संविधान विशेषज्ञों की राय क्या है और किस-किस देश में यह प्रावधान पहले से लागू है?य् इस प्रश्न का उत्तर सचिवालय को श्री गांधी ने 10 अगस्त, 2010 को दिया। उत्तर देने के लिए याचिकाकर्ता ने जाने-माने अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला और डॉ- सुभाष कश्यप को पत्र लिखकर निवेदन किया। दोनों विशेषज्ञों ने पत्र लिखकर कहा कि वोटरशिप का प्रस्ताव उचित है, लोकतांत्रिक है, संविधान सम्मत है और संभव है।
7) उक्त रिपोर्ट के बाद राज्यसभा के सभापति यानी उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी को वोटरशिप अधिकार देने की याचिका स्वीकार करने की सिफारिश किया। राज्य सभा के महासचिव के माध्यम से किया। उपराष्ट्रपति के कहने पर राज्य सभा के महासचिव ने फाइल को लगातार चार साल तक दबाकर रखा। जब सचिवालय ने कई बार निवेदन किया तो याचिका के विषय में प्रमुख याचिकाकर्ता यानी इस पुस्तक के लेखक से साक्षात्कार करने के लिए उपराष्ट्रपति ने संसदीय सचिवालय के विशेषज्ञों की एक समिति गठित करने का मौखिक आदेश दे दिया। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि श्री गांधी के साथ पूछताछ करके समिति संतुष्ट हो जाती है, तो मैं याचिका स्वीकार कर लूंगा। गोयल समिति ने श्री गांधी को 23 नवम्बर 2011 को संसद भवन में नोटिस भेजकर बुलाया। वोटरशिप संबंधी लगभग सभी सवालों के उत्तर पूछे। श्री गांधी ने सभी सवालों के मौखिक जवाब दिये और लगभग 121 सवालाें का हिन्दी व अंग्रजी में लिखित जवाब जमा किया।
(इन प्रश्नों और उनके उत्तरों के लिए देखिये पुस्तक के रूप में प्रकाशित संसद में 137 संसद सदस्यों द्वारा पेश वोटरशिप संबंधी याचिका ‘संसद में वोटरशिप’)
8) दिनांक- 02 दिसम्बर, 2011 को समिति ने उपराष्ट्रपति को पत्र लिखकर कहा कि वोटरशिप का प्रस्ताव न तो अनुचित है और न ही असंभव। इस प्रस्ताव के खिलाफ जो शंकायें पैदा हो रही हैं, वे भी निराधार हैं। अतः समिति वोटरशिप देने की मांग करने वालीयाचिका स्वीकार करने की सिफारिश करती है।
9) उपराष्ट्रपति/सभापति ने फाइल को 20 दिन तक के लिए दबाकर रखने के बाद 22 दिसम्बर 2011 को फाइल पर लिखित आदेश दे दिया। अपने आदेश में उन्होंने कहा कि वोटरशिप की मांग करने वाली श्री विश्वात्मा भरत गांधी व अन्य की याचिका अस्वीकार की जाती है। जब उपराष्ट्रपति ने अपने ही विशेषज्ञों की समिति की सिफारिश नहीं मानी, तो राजनीतिक अनुभव रखने वाले लोगों ने तीन निष्कर्ष निकाले। पहला यह कि उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी ने तीन सप्ताह तक यह फाइल दिखा-दिखाकर अरबपतियों से सौदा किया। समिति की सिफारिश खारिज करने के लिये उन्होंने कितनी मोटी रकम ली, यह तो गरीबों की सीबीआई या गरीबों का लोकपाल जांच करे, तभी पता चल पायेगा। दूसरा, यह कि सत्ताधारी दलाल दलों के अध्यक्षों ने उनको राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बना देने का आश्वासन दिया। तीसरा, यह कि ऐसा भी हो सकता है कि उक्त दोनों ही घटनाएं घटी हों। लेकिन असलियत क्या थी, यह आने वाला समय बताएगा।
10)जो भी हो, संसद में दायर वोटरशिप याचिका देने के छह साल लम्बी जांच-पड़ताल, वोटरशिप के संबंध में दोनो पक्षों को सुनने के बाद व काउण्टर-रिज्वाइंडर दाखिल हो जाने के बाद मुकदमे का फैसला वोटरों के हक में हो चुका है। बस, उपराष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगाने से मनाकर दिया है। क्योंकि कोई भी जज स्वयं अपने खिलाफ लिखे गये फैसले पर मुहर नही मार सकता।
11)वोटर पेंशन का अधिकार साइकिल-मोटर साइकिल वाले वोटरों का जन्मजात हक है। इस वर्ग का एक भी प्रतिनिधि संसद और विधाानसभाओं में नहीं है। इस मुकदमे की सुनवाई कर रही अदालत में जज की कुर्सी पर जिस उपराष्ट्रपति यानी राज्य सभा के अध्यक्ष को बैठाया गया है, वह उन्हीं पार्टी अध्यक्षों के द्वारा भेजा गया है, जिसमें से एक भी पार्टी अध्यक्ष साइकिल-मोटर साइकिल के समुदाय से नहीं आता। उपराष्ट्रपति के फैसले से यह सिद्ध हो गया है कि देश में रह रहे गरीब व मध्यम वर्ग के 100 में से 80 लोग बेसहारा ही नहीं हैं_ बल्कि ये लोग बेसंसद, बेसरकार और बेवतन भी हैं। अब इनको केवल वोटरशिप के हक के लिये ही नहीं, अपना वतन, अपनी सरकार और अपनी संसद बनाने के लिये भी संघर्ष करना होगा।
12)वोटरों के पक्ष में संसदीय सचिवालय के 02 दिसम्बर, 2011 के फैसले के बाद भी सरकार वोटरशिप की रकम वोटरों को चालू नहीं कर रही है। इसे ऐसे ही समझना चाहिए कि अदालत के फैसले के बाद भी गुण्डा जमीन पर से कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं है। जिन गुण्डों (खरबपतियों) ने वोटरों की जमीन-जायदाद (वोटरशिप की रकम) पर कब्जा कर रखा है। उन्हीं कब्जाधारियों का दलाल अदालत का जज बनकर बैठा है। जब तक वोटरों की जमीन पर कब्जा करने वाले गुण्डों के दलाल जज की कुर्सी पर काबिज रहेंगे। तब तक ऐसा कोई भी जज 02 दिसम्बर, 2011 को हुये अदालत के फैसले पर दस्तखत नहीं करेगा। वोटरशिप पर अर्थशास्त्री डॉ- भरत झुनझुनवाला व जाने-माने संविधानविद् डॉ- सुभाष कश्यप की राय और वोटरशिप पर गोयल समिति के फैसले को सूचना के अधिकार के तहत 10 रूपया भेजकर संसद के राज्यसभा सचिवालय से मंगाकर कोई भी देख सकता है। इन सभी जानकारियों को वेबसाइट पर हिन्दी, अंग्रजी व अन्य भाषाओं में देखा जा सकता है। वेबसाइट है-
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13)इस पुस्तक तथा राजीनीति सुधार पर दर्जनों पुस्तकों के लेखक श्री विश्वात्मा भरत गांधी पिछले 20 सालों से देश भर में समाज के सबसे निचले पायदान पर खडे़ लोगों के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहे हैं। श्री विश्वात्मा पिछले 20 सालों में लगभग 85000 से अधिक लोगों को वोटरशिप अधिकार के लिए जरूरी राजनीतिक सुधार और वैज्ञानिक अध्यात्म का प्रशिक्षण दे चुके हैं। प्रशिक्षित लोग अपने-अपने क्षेत्रें में वोटरशिप आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे हैं।
संसद की गोयल कमेटी की रपट
वोटरशिप का प्रस्ताव संसदीय सचिवालय की कमेटी ने 2 दिसम्बर, 2011 को स्वीकार कर लिया था। फिर भी इसे रोककर रखा गया है। समिति की रिपोर्ट देखने के लिए निम्न वैबसाइट देखें –
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वोटरशिप पर बनी गोयल कमेटी की सिफारिशों को रोकने के खिलाफ वोटरों की अदालत में प्रमुख याचिकाकर्ता श्री विश्वात्मा भरत गांधी की अपील
1) यह कि वोटरों के साझे धन का ब्याज और किराये का पैसा सरकार हर महीने वोटरों के खाते में बिना शर्त दे। यह मांग करने वाली श्री विश्वात्मा भरत गांधी व अन्य की याचिका लोकसभा में 112 सांसदों द्वारा सन्-2005 में और राज्यसभा में 25 सांसदों द्वारा सन्-2008 में पेश की गई। इस बात को बताते हुये राज्य सभा के अधिकारियों की कमेटी ने कमेटी ने अपनी रपट में लिखा है कि फ्वोटराें को वोटरशिप का अधिकार देने के लिये दायर की गई श्री विश्वात्मा भरत गांधी जी की याचिका राज्यसभा सचिवालय को 2008 को प्राप्त हुई। इस याचिका को मा0 श्री ब्रजभूषण तिवारी जी, स्व0 श्री जनेश्वर मिश्रा जी, श्री दिनेश द्विवेदी जी, (वर्तमान भारत सरकार के रेल मंत्री) श्री भगवती सिंह जी आदि राज्यसभा के माननीय सदस्यों ने राज्यसभा नियमावली के नियम 144 के तहत श्री विश्वात्मा भरत गांधी व अन्य की याचिका राज्यसभा के समक्ष पेश करने के लिए राज्यसभा के महासचिव को नोटिस दिया।य्
2) यह कि याचिका में की गई मांगों पर वित मंत्रलय, कानून मंत्रलय, विधि मंत्रलय, चुनाव आयोग, अर्थशास्त्री डॉ- भरत झुनझुनवाला, संविधान विशेषज्ञ डॉ- सुभाष कश्यप की राय मंगवाई गई। लोकसभा में लटकाया दिया गया। राज्य सभा सचिवालय मेें संयुक्त सचिव श्री दीपक गोयल के नेतृत्व में कमटी बनायी गई। इस कमेटी के सामने याचिकाकर्ता श्री भरत गांधी को बुलाया गया। वोटरशिप का प्रस्ताव संभव है, उचित है या नहीं। इन सवालों पर गंभीर मंथन हुआ। अंत में कमटी ने अपनी रपट देते हुये कहा कि फ्याचिका एक बोल्ड व अनूठा विचार लेकर आई है। याचिका में जो विचार पेश किया गया है। उसको योजना आयोग के नये कदमों से भी बल मिला है। जिसमें यह कदम उठाया गया है कि सरकारी अनुदान जिनके लिए बनाया गया है। उनके पास अब नगद रूप में ही भेजा जाये। यह प्रयोग कुछ प्रदेशों में शुरू हो चुका है। राज्यसभा की याचिका समिति के चेयरमैन (डॉ भगत सिंह कोश्यारी वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य व उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री) ने भी याचिकाकर्ता के विचार में रुचि दिखाई है। अतः प्रस्तुत याचिका राज्यसभा के नियम 137 के तहत स्वीकार्य किया जा सकता है।य्
3) गोयल कमेटी ने अपनी रपट देते हुये यह भी कहा कि फ्याचिकाकर्ता के विचार बोल्ड व अनूठे हैं। यदि इसे गम्भीरता से लिया गया, तो समावेशी विकास के लिए कोई तरीका निश्चित रूप से विकसित हो सकता है। जिसकी आज कल चारों तरफ चर्चा है।य्
4) गोयल कमेटी द्वारा वोटरशिप के प्रस्ताव का समर्थन कर दिये जाने के बाद भी राज्य सभा के महासचिव वी-के- अग्निहोत्री ने खरबतियों के दबाव में आकर कमेटी की सिफारिशों को नहीं माना। महासचिव ने 15 दिसम्बर, 2011 के अपने फैसले में कहा कि फ्याचिका समिति से यह उम्मीद की जाती है कि समिति याचिकाकर्ता की विशेष शिकायतों के समाधान पर अपनी सिफारिश देगी। याचिका में जो प्रार्थना की गयी है, उसे शिकायतों की श्रेणी में नही रखा जा सकता। याचिका का दायरा बहुत विशाल है। यह लोकसभा के चुनाव से भी संबध रखता है। अतः इसकी प्रार्थना पर लोकसभा की याचिका समिति द्वारा बेहतर ढंग से विचार किया जा सकता था। अतः याचिका स्वीकार्य करने योग्य नहीं है।य् महासचिव ने एक सप्ताह बाद 22 दिसम्बर, 2011 को राज्यसभा की इस स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष श्री भगत सिंह कोश्यारी (वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल) से भी इस गलत फैसले पर दस्तखत करवा लिया। जबकि इन्हीं कोश्यारी जी का नाम गोयल कमटी की रपट में वोटरशिप के प्रस्ताव के समर्थकों में लिखा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही आदमी का नाम समर्थकों व विरोधी दोनों की सूची में हो?
5) राज्यसभा के महासचिव को यह मालूम था कि मामला लोकसभा में पहले ही पेश हो चुका है और लटका दिया गया है। फिर भी राज्यसभा के महासचिव ने इसे नजरअंदाज करते हुए लोकसभा के बहाने याचिका को राज्यसभा में स्वीकार करने से मना कर दिया। इससे यह सिद्ध होता है कि राज्य सभा के महासचिव का यह फैसला संविधान विरोधी है। लोकतंत्र विरोधी है। वोटरों के विरोध में है। किसी न किसी राजनैतिक साजिश के तहत दिया गया है। सक्षम एजेन्सी द्वारा जांच किया जाये, तो साजिशकर्ता के नाम सामने आ सकते हैं।
6) राज्यसभा के महासचिव ने वोटरशिप की याचिका को अस्वीकार करते हुये कहा कि याचिका समिति का अधिकार क्षेत्र इतना बड़ा नहीं है कि वह वोटरशिप जैसे बड़े प्रस्ताव पर विचार करे। याचिकाकर्ता यानी श्री भरत गांधीकी आपत्ति यह है कि अधिकार क्षेत्र के सवाल पर किसी याचिका को कोई भी अदालत पहले ही दिन खारिज करती है_ न कि तीन साल के ट्रायल (मुकदमे) के बाद। इसलिए याचिका को नामंजूर करने के पीछे असली कारण कुछ और हैं। याचिका समिति के अधिकार क्षेत्र की बात महज एक बहाना है।
7) एक साधारण आई-ए-एस- अधिकारी का फैसला प्रोफेसर व जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ- भरत झुनझुनवाला से बड़ा कैसे हो सकता है? वित्त मंत्रलय के अधिकारी कहते हैं कि वोटरशिप लागू करना सम्भव नहीं है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि सम्भव है। अर्थशास्त्रियों जैसे काबिल लोगों की बात को नीचे दबाना और तुलनात्मक रूप से नाकाबिल अधिकारियों की बात मान लेने से यह साबित होता है कि संसद में और सरकार के उच्च पदों पर उन्हीं अधिकारियों की चलती हैं। जो वोटराें का नमक खाते हैं और उन्हीं के खिलाफ साजिश करते हैं।
8) याचिका में साफ-साफ लिखा था कि याचिकाकर्ता श्री विश्वात्मा भरत गांधी ने 28 साल की उम्र में यह संकल्प लिया कि बेरोजगारी के वर्तमान युग में वह किसी की रोजी रोटी छीन कर सरकारी नौकरी नही करेंगे_ वोटरशिप अधिकार मिलने तक वह अविवाहित रहेंगे तथा आयविहीन रहेंगे। अतः सरकार द्वारा वोटरशिप न देने से श्री गांधी का व्यक्तिगत जीवन खतरे में फंसा हुआ है। यह खतरा याचिकाकर्ता का फ्स्पेसिफिक ग्रीवान्सय् यानी व्यक्तिगत पीड़ा है। इस खतरे से निकालने के लिये संसद से गुहार लगाना पूरी तरह याचिका समिति के अधिकार क्षेत्र का मामला है। इस तथ्य को नजरंदाज करके अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात बताकर महाचिव वी-के- अग्निहोत्री द्वारा याचिका को नामंजूर करना केवल याचिकाकर्ता ही नहीं, सभी वोटरों पर अन्याय है। इस घृणित कृत्य के कारण अग्निहोत्री को इतिहास खलनायकों की श्रेणी में रखेगा।
9) संविधान के बारे में निर्वाचन आयोग के अधिकारियों की जानकारी देश के जाने-माने संविधान विशेषज्ञ डॉ- सुभाष कश्यप सेे अधिक कैसे हो सकती है? डा0 सुभाष कश्यप जी कहते हैं कि वोटरशिप का प्रस्ताव संविधान को सही ढंग से लागू करने की दिशा में उठाया गया एक सही कदम है। अनुच्छेद 325, 326, 327 व 328 की व्याख्या करते हुये डॉ कश्यप कहते हैं कि वोटरशिप से संविधान को बेहतर ढंग से लागू किया जा सकता है। मतदान प्रतिशत भी बढ़ाया जा सकता है। लोकतंत्र को ज्यादा स्वीकार्य बनाया जा सकता है। वोटरशिप का प्रस्ताव वोटरों को पैसा देने को कहता है। किसी का नाम वोटर लिस्ट से हटाने को नहीं कहता। फिर कैसे कहा जा सकता है कि यह प्रस्ताव संविधान के अनुच्छेद 326, 327 के खिलाफ है?
10)सरकारी अधिकारियों ने वोटरशिप का विरोध किया तो राज्यसभा के महासचिव ने इस विरोध को कीमती मानते हुये अपने फैसले का आधार बनाया। अर्थशास्त्री डॉ- भरत झुनझुनवाला, संविधान विशेषज्ञ डॉ- सुभाष कश्यप ने वोटरशिप का समर्थन किया तो इस समर्थन को महत्वहीन मानते हुये फैसले का आधार नहीं बनाया। पक्षपात के आवेग में महासचिव अग्निहोत्री भूल ही गये कि संसद सरकार के अधीन नहीं है। याचिकाकर्ता व सरकार दोनों संसद के कठघरे में खड़े दो पक्षकार होते हैं। यह कहां का न्याय है कि जज केवल एक पक्ष की बात सुने और फैसला सुना दे? यह कहां का न्याय है कि स्वयं जांच करने के लिये कमेटी बनाओ और स्वयं उस कमेटी की बात मानने से मना कर दो? महासचिव अग्निहोत्री को जब कमेटी की बात नही माननी थी तो कमेटी बनायी ही क्यों? यह कहां का न्याय है कि पंचायत यानी कमेटी की बात नीचे कर दो और एक आदमी यानी महासचिव की बात ऊपर कर दो।
11) कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि फ्याचिकाकर्ता (श्री भरत गांधी) को 23 नवम्बर 2011 अपहरान्ह 4बजे संसद भवन में अधिकारियों की कमेटी के समक्ष चर्चा के लिए बुलाया गया। याचिकाकर्ता ने चर्चा की शुरूआत करते हुए कहा कि वोटरशिप प्रस्ताव से मिलते-जुलते विचार को ब्राजील, अलास्का और नामीबिया में लागू किया जा चुका है। उन्होंने कहा कि भारत सरकार गरीबी रेखा के नीचे के लोगों की आर्थिक मदद पहले से करती रही है। किन्तु धन के दुरूपयोग के कारण जिनको यह लाभ मिलना चाहिए। उनको पूरी तरह नहीं मिल पा रहा है। यह याचिका समावेशी विकास और चुनाव सुधारों के लिए भी पेश की गई है। याचिका में यह कहा गया है कि आर्थिक सुधारों को लागू करने के कारण कुछ लोगों की क्षति हुई है। पीड़ित लोगों को क्षतिपूर्ति की जा सकती है। संक्षेप में याचिकाकर्ता गरीबों व अमीरों में बढ़ती खाई से भी चिंतित हैं। याचिकाकर्ता इस खाई को कम करना चाहते हैं। याचिकाकर्ता का मूल मंतव्य यह है कि राष्ट्र के संसाधनों में राष्ट्र के वोटर का समान हिस्सा होता है। किन्तु संसाधनों का अधिकतम लाभ सभी वोटरों को नहीं मिलता। यह लाभ केवल अमीर लोगों में बंट जाता है। सभी नागरिकों (वोटरों) को एक निश्चित नगद धनराशि नियमित देने सेे राष्ट्र के कई लाभ हैं। इससे अमीर और गरीब की खाई को कम करने में मदद मिलेगी। याचिका में एक विशेष तरीके का सुझाव दिया गया है, जिससे वोटराें की वोट पाने वाले लोगों की ओर वोटरशिप की कुछ धनराशि प्रवाहित की जा सके। हालांकि यह बात तब सम्भव है, जब याचिका की मूल अवधारणा स्वीकार हो चुकी हो। य्
12)फ्वोटरशिप देना सम्भव नहीं है_ इस रकम से लोग निकम्मे हो जायेंगेय्- यह बात केवल वही कह सकता है। जिसे दूसरों का सुख को देखने में तकलीफ होती है। या उसे देश और दुनिया के खजाने के बारे में उसे सही जानकारी नहीं है। या उसे ब्राजील, अलास्का व नामीबिया में घटी घटनाओं की जानकारी नहीं है। बड़ी पार्टियों के जो नेता वोटरशिप के अधिकार को फ्मुश्किल कामय् बताकर वोटरों को विश्वात्मा भरत गांधी के समर्थकों को वोटर्स पार्टी इन्टरनेशनल से जुड़ने से रोक रहे हैं। उन्हें केवल इतनी चिंता है कि वोटरशिप लागू करने का श्रेय केवल उनकी पार्टी को ही मिले। यदि न मिले तो वोटरशिप लागू ही न होने पाये। उनको चंदा देने वाले लोग भी यह कह कर रोक रहे हैं कि फ्मजदूर मंहगे हो जायेंगेय्। आखिर जब सरकारी कर्मचारी व कम्पनियों के नौकर अमीर देशों जैसा वेतन पाने लगे_ तो क्या किसान, मजदूर व कस्बों के छोटे दुकानदार गरीब देशों जितना ही कमाते रहेंगे?
वोटरों से श्री विश्वात्मा की प्रार्थना
उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुये मतकर्ताओं (वोटरों) से याचिकाकर्ता की प्रार्थना है कि –
1) चुनाव में वोट देकर देश की बागडोर उन लोगों को सौंपने का काम शुरू करें, जिनको वोटरशिप सम्भव लगती है। और जो लोग देश ही नहीं दुनिया की भी कानूनी व्यवस्था में इस तरह का सुधार करना चाहते हैं, जिससे वोटरशिप देना सम्भव हो सके। साथ में मंहगाई भत्ता देना सम्भव हो सके। और सरकारी कर्मचारियों के वेतन की तरह वोटरशिप की रकम लगातार बढ़ाते रहना सम्भव हो सके।
2) उक्त जानकारी के बाद यदि वोटरशिप की बात और राजनीति सुधारने की बात सच्ची व अच्छी लगी हो, तो मैं वोटर्स पार्टी इन्टरनेशनल के प्रत्याशियों को वोट देने व दिलाने की अपील करता हूँ। क्योंकि हमारी जानकारी में यही एक पार्टी है, जिसका संविधान खरबपतियों की दलाली करने वाले दलाल-दलों से अलग है।
3) बड़े टीवी चैनलों व अखबारों के दिमाग से नहीं, अब अपने दिमाग से सोच कर वोट देना सीखें। क्योंकि ये टीवी चैनल व समाचार पत्र भी खरबपतियाें के पैसे की गुलामी में कराह रहे हैं। ये खरबपतियों के व्यूज को न्यूज की तरह बनाकर पेश करते हैं। जज की कुर्सी पर बैठ कर वकील की तरह पक्षपाती तर्क-वितर्क करते हैं। खरबपतियाें के आदेश्ा पर तिल को ताड़ बनाते हैं और ताड़ को तिल बनाते हैं। ये कभी गणेश को दूध पिलाते हैं। कभी अन्ना को महात्मा गांधी से बड़ा महात्मा बनाते हैं। कभी खरबपतियों के कठपुतली को गरीबों का मसीहा बनाकर जहरखुरानी करने वालों की तरह जनता की वोट झटकते हैं। जब जनता इनकी कठपुतली से परेशान हो जाती है। तो नई कठपुतली लाकर फिर से वोट झटकते हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद पिछले 70 सालों से यही हो रहा है। इसलिये समस्त वोटरों भाइयों-बहनों से प्रार्थना है कि कम से कम वोट देने के लिये टीवी चैनलों व समाचार पत्रें को अपना गुरू नहीं, शत्रु मानकर चलें। जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चल रही वोटरों व मीडिया की आर्थिक गुलामी को खत्म किया जा सके। यह काम करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को राजसत्ता तक पंहुचाना संभव हो सके।
कुछ उपयेगी आंकड़े (सन् 2019 के आधार पर)
भारत की जनसंख्या (ूूूण्सपअमचवचनसंजपवदण्बवउ) 1ए36ए64ए17ए754
भारत में वोटरों की संख्या 91-15 करोड़
कुल जनसंख्या में मतकर्ताओं का प्रतिशत 66-72
प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय (च्ब्प्) त्ेण् 1ए35ए050
भारत की सकल घरेलू आय (ळछप्) त्ेण्18-45 लाख करोड़
भारत की प्रति वोटर वार्षिक आय (ळछप्) त्ेण् 2ए02ए452
भारत की प्रति वोटर मासिक आय त्ेण् 16ए871
प्रति वोटर मासिक आय में मशीनों के हिस्से की मासिक मजदूरी(16,871 का 80ः) त्ेण् 13ए497
कुल आय में लोगों की निजी आय 16871-13497=3374
भारत की प्रति वोटर वोटरशिप की रकम 8435/-
(2001 से 2010 तक-रु- 1750_ 2011 से 2015 तक-रु- 3529_ 2015 से 2020 तक- रु- 5896)
भारत में अमीरतम 10ः लोगों के पास देश की आय 77ः
भारत में अमीरतम 1ः लोगों के पास देश की आय 73ः
भारत में गरीबतम 60ः लोगों की आय 4ण्7ः
प्रतिदिन रु- 150 से कम आय के लोग 90 करोड़
प्रतिदिन रु- 90 से कम आय के लोग 48-8 करोड़
भारत की कुल सम्पत्ति 882 लाख करोड़
10 प्रतिशत सम्पत्ति कर की दर से प्राप्त राशि 88-2 लाख करोड़
वोटरशिप के लिए आवश्यक कुल राशि(प्रतिमाह) 7-68 लाख करोड़
केन्द्र व राज्य सरकारों में कार्यरत लोगों की संख्या 1-76 करोड़
संगठित निजी क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या 1-14 करोड
भारत में रोजगार प्राप्त लोगों की संख्या (2011) 2-90 करोड़
भारत में रोजगार प्राप्त लोगों का प्रतिशत 2012 त्ठप् 6ः
भारत में बेरोजगार लोगों की संख्या 2012 त्ठप् 43-70करोड़
भारत में ैब् जनसंख्या (सन् 2011) 26-0 करोड
भारत में रोजगार याचक ैब् जनसंख्या (सन् 2011) 9-1 करोड़
भारत में ैब् के लिए आरक्षित नौकरियां 26-4 लाख
भारत मे बेरोजगारी के लिये आरक्षित ैब् जनसंख्या 8-83 करोड़
बेरोजगारी के लिये आरक्षित ैब् जनसंख्या का: 97ः
भारत में ैज् जनसंख्या (सन् 2011) 11-0 करोड़
भारत में रोजगार याचकैज्जनसंख्या (सन् 2011) 3-8 करोड़
भारत में ैज् के लिए आरक्षित नौकरियां 12-32 लाख
बेरोजगारी के लिये आरक्षित ैज् जनसंख्या का प्रतिशत 96-8:
भारत में व्ठब् जनसंख्या (जनगणना हेतु सरकार राजी नहीं)
भारत में व्ठब् जनसंख्या (स्कूलों के आंकड़े़) 60 करोड़
भारत में रोजगार याचक व्ठब् जनसंख्या (सन् 2011) 21 करोड़
भारत में व्ठब् के लिए आरक्षित नौकरियां 47-52 लाख
भारत मे बेरोजगारी के लिये आरक्षित व्ठब् जनसंख्या 20-52 करोड़
बेरोजगारी के लिये आरक्षित व्ठब् जनसंख्या का प्रतिशत 97-7ः
भारत में खरबपतियों की संख्या 15
भारत में अरबपतियों की संख्या 102
भारत में आयकर देने वालों की संख्या (6ः) 8-45 करोड़
भारत में प्रत्यक्ष कर (आयकर, राज्य कर एवं सम्पत्ति कर) से प्राप्त कुल राशि 11-17 करोड़

विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का 76 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है, जबकि 50 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 2 प्रतिशत है। दुनिया के सबसे धनी 10 प्रतिशत अमीरों का कुल आय में हिस्सा 52 प्रतिशत है, जबकी सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगों का आय में हिस्सा केवल 8-5 प्रतिशत है। भारत में 1 प्रतिशत अमीरों के पास कुल राष्ट्रीय आय का 21-7 प्रतिशत हिस्सा जाता है। 10 प्रतिशत अमीर कुल आय का 57 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करते है। जबकि 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में केवल 13 प्रतिशत आय आती है।
सबके फायदे के प्रस्ताव का विरोध क्यों?
वोटरशिप पर संसद में और आम जनता में जो सर्वे हुआ। उससे लोगों के मन में एक सवाल उठ खड़ा हुआ कि आखिर सबके फायदे की इस चीज को कुछ लोग और कुछ पार्टियों के मुखिया विरोध क्यों कर रहे हैं? इस सवाल का सही जवाब नहीं मिल पाता। इसलिये वोटरशिप के समर्थक लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि फ्वोटरशिप के विरोधी लोग पड़ोसी का सुख देखकर दुखी हो जाते हैं। ये लोगसमाज का खून पीने वाले शोषक लोग हैं। य् वोटरशिप के विरोधी लोग यह समझतेे हैं कि फ्वोटरशिप के समर्थक लोग अज्ञानी व गैर जिम्मेदार लोग हैं। य्
सच्चाई यह है कि उक्त दोनों तरह के लोग भ्रम में हैं। इन दोनों ही लोगों को इंसान की विचारधारा पर रक्त के प्रभाव के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है। जन्तु विज्ञान का एक साधारण सा विद्यार्थी व साधारण सा डॉक्टर यह जानता है कि मानव शरीर की नाड़ियों में बहने वाले रक्त एक समान नही होते। कुल आठ तरह के रक्त होते हैं। इस प्रकार मानव जाति रक्त के हिसाब से 8 नस्लों में विभाजित है।
इनमें से दो खून आपस में परस्पर विरोधी हैं। इन दोनों खूनों का नाम है- ओ प्लस व ओ माइनस- (व़् व व्-) और एबी प्लस व एबी माइनस(।ठ़ व ।ठ-)। जिस व्यक्ति की नाड़ियों में ‘ओ माइनस’ नाम का खून बहता है, उसका खून अन्य हर एक आदमी की शरीर में चढ़ सकता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति की नाड़ियों में ‘एबी प्लस’ नाम का रक्त बहता है, उसके शरीर में हर वर्ग के आदमी का खून चढ़ सकता है। किन्तु उसका खून अन्य किसी भी वर्ग के आदमी के शरीर में नहीं चढ़ सकता। ‘ओ’ सबको देने वाला है। एबी- सबका लेने वाला है। इसीलिये ‘ओ’ रक्त धारकों को ‘सर्वदाता’ (यूनिवर्सल डोनर) कहते हैं। और एबी- रक्त धारकों को ‘सर्वग्राही’ (यूनिवर्सल रिसीवर) कहते हैं।
जिस तरह रक्त के पैमाने पर मानव जाति में 8 (जीरोपैथ के अनुसार 64) उपजातियाँ हैं। उसी तरह शरीर की तंत्रिकाओं (नर्व) में बहने वाली संचेतना (इम्पल्स) के पैमाने पर भी मानव जाति में 64 उपजातियां हैं। तंत्रिकाओं (नर्व) में बहने वाली संचेतना (इम्पल्स) अलग-अलग होने के नाते ही सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर विचारधाराएं अलग-अलग हो जाती हैं। ये मूल विचारधारायें 64 से कम नही हैं। अभी तो वामपंथ, दक्षिणपंथ, पूंजीवाद, साम्यवाद, राष्ट्रवाद आदि के नाम से कुछ थोड़ी सी विचारधाराओं से संसार परिचित है। बाकी के बारे में जानना अभी बाकी है।
विचारधाराओं के जैविक (बायोलॉजिकल) आधारों को समझने के बाद इस बात से रहस्य का पर्दा हट जाता है कि फ्आखिर सबके फायदे की बात होने के बावजूद कुछ अमीर व कुछ गरीब लोग वोटरशिप के प्रस्ताव का विरोध क्यों करते हैंय्? एबी- प्रभाव यदि रक्त पर पड़ जाये, तो वह समाज के सभी लोगों का रक्त लेने वाला बन जाता है। इसी प्रकार एबी- प्रभाव यदि मस्तिष्क (केन्द्रीय नर्वस सिस्टम) पर पड़ जाये, तो वह समाज के सभी लोगों का धन हड़पने वाला बन जाता है। उसके तर्क-वितर्क धन हड़पने की बात को सही ठहराने के काम में लग जाते हैं।
इसके विपरीत ओ- प्रभाव यदि रक्त पर पड़ जाये, तो वह समाज के सभी लोगों का रक्त देने वाला बन जाता है। इसी प्रकार ओ- प्रभाव यदि मस्तिष्क (केन्द्रीय नर्वस सिस्टम) पर पड़ जाये, तो वह समाज के सभी लोगों मेंधन का न्यायिक बंटवारा करने वाला बन जाता है। उसके तर्क-वितर्क धन बंटवारे की बात को सही ठहराने लग जाते हैं।
स्पष्ट है कि पार्टियों को चलाने वाले ज्यादातर प्रमुख लोग धन हड़पने की आदत होने के नाते ही पार्टी के लिये धन का प्रबंध कर पाते हैं। धन प्रबंध की काबिलियत के कारण ही वे पार्टी में अपना नेतृत्व मानने के लिये दूसरे नेताओं को विवश कर पाते हैं। वे आम की तरह ऊपर से सुंदर व अंदर से गुठलीदार होते हैं। लोग उनकी सुंदरता को तो देख पाते हैं किन्तु उनकी गुठली में छिपे छल-प्रपंच को नही देख पाते। ये लोग ओ- मनोवृत्ति के लोगों को वोटरों का शिकार करने के लिये लोहे के कांटे में लगाये जाने वाले केचुए की तरह इस्तेलाल करते रहे हैं। जैसे केचुओं को देखकर मछलियां खाने दौड़ती हैं और उनके मुँह में कांटा धंस जाता है। वैसे ही ओ- मनोवृत्ति के नेताओं की सज्जनता से प्रभावित होकर वोटर मछलियों की तरह दौड़कर वोट देता है। लेकिन पांच साल तक उसके गले में सरकार रूपी कांटा गड़ा रहता है। पांच साल बाद फिर यही क्रम दोहराया जाता है। इस तरह वर्तमान कथित लोकतंत्र में ओ- मानसिकता के 60 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत एबी- मानसिकता के लोगों की गुलामी सैकड़ाें सालों से कर रहे हैं। उनके बच्चों के मस्तिष्क पर ओ- प्रभाव पड़ रहा है। उन्हें जीवन भर गुलामी करनी पड़ रही है। वे काम ज्यादा करते हैं। पारिश्रमिक कम मिलता है। इसके विपरीत जिनके बच्चों के मनव मस्तिष्क पर एबी- प्रभाव पड़ रहा है, उन्हें जीवन भर बिना कोई काम किये भी पुरस्कार मिल रहा है।
अब यह भी स्पष्ट है कि सदियों से चली आ रही इस गुलामी को एबी- मानसिकता के नेता व खरबपति कदापि खत्म नही होने देंगे। ओ- मानसिकता के लोगों को अपनी विश्वव्यापी यूनियन बनाकर पूरी राजव्यवस्था, जो एबी- मानसिकता वालों के हिसाब से बनी है, उसे ‘फार्मेट’ करना होगा।
राजनीतिक दलों पर आमतौर पर वोट की राजनीति करने का आरोप लगता है। आरक्षण का समर्थन करने पर या जातिवादी, क्षेत्रवादी व संकीर्ण राष्ट्रवादी राजनीति करने पर उनको कोसा जाता है। यह कहा जाता है कि वे जनसंपर्क करके लोगों के सुख-दुख से जुड़ने की बजाय शार्टकट में भावनाएं भड़काने का काम करते हैं। लेकिन संसद में प्रस्तुत वोटरशिप के प्रस्ताव पर तो ठीक विपरीत स्थिति बन गई है। संसद में घटी तीन सालों (सन् 2005-2008) की परिघटनाओं से तो यही दिखाई देता है कि पार्टियों, खास करके पार्टियों के अध्यक्षगण वोट की बजाय नोट की राजनीति करते हैं। उनका मानना है कि -‘जिसे नोट मिलती है। उसे वोट मिल ही जाती है’। अगर ऐसा नहीं है। तो आखिर सभी पार्टियों के अध्यक्षों ने वोटरशिप का मुद्दे से इतनी दूरी बनाकर क्यों रखी है? यह तो तय है कि पैसा किसी को बुरा नहीं लगता। यदि वोटरशिप का मुद्दा कोई भी पार्टी उठायेगी। तो उसे थोक में वैसे ही वोट मिलेगे। जैसे भावनात्मक मुद्दे उठाने से मिलते हैं। आखिर यह बात जानते हुए भी इस मुद्दे से पार्टियों के अध्यक्षगण दूरी क्यों बनाये हुए हैं?
अगर इस सवाल पर गहराई से पड़ताल करें। तो इसके कई कारण दिखाई पड़ते हैं। पहला कारण यह है कि वर्तमान पार्टियों में अधिकांश पैसे के लिए खरबपतियों पर निर्भर करती हैं। जनता से वोट लेती हैं और खरबपतियों से चन्दा। ऐसी स्थिति में पार्टी पर खरबपतियों का व्यवस्थागत नियंत्रण स्थापित हो जाता है। आजकल तो बात यहाँ तक पहुंच गई है कि पार्टियां जनपथ की बजाय धनपथ पर चल पड़ी है। आर्थिक तंगी के चलते लाखों लोगों की गरीबी व आत्महत्याएं भी पार्टियों की जनसंवेदना जगा नहीं पा रही हैं। ‘सस्ते मजदूर पाने के लिए देश के बहुसंख्यक जनता को गरीबी का कानूनी आरक्षण बनाये रखा जाना चाहिए’- खरबपतियों का यह एक प्रबल अंधविश्वास होता है। विदेशी कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में अपने आपको बचाये रखने व निर्यात को बढ़ाने के तर्क पर गरीबों को गरीब बनाये रखने पर ज्यादातर खरबपति लोग पूरा जोर देते हैं। पूंजीपति राजनीतिक पार्टियों को चंदे की लगाम से अपनी इसी सोच की दिशा में हांकते हैं। चंदा पाने के लिए बड़ी से बड़ी पार्टी केे अध्यक्ष को खरबपतियों का घोड़ा बनना पड़ता है।
ये नेतागण ।ठ खून से पैदा हुए ।ठ मानसिक प्रवृति के होते हैं। जो धन के केन्द्रीकरण व राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास करते हैं। चूंकि वोटरशिप का प्रस्ताव धन के विकेन्द्रीकरण की बात कर रहा है। इसलिए ।ठ मानसिकता के लोग इस प्रस्ताव विरूद्ध हो गये हैं। वोटरशिप का विरोध करना इनके लिए तर्क से ज्यादा आस्था का विषय है। इसलिए ऐसे लोग तर्क में हार जाने के बावजूद भी वोटरशिप का विरोध करना नहीं छोड़ते।
।ठ मानसिकता के कारण ही इन लोगों के तमाम व्यवहार नेताओं की बजाय पूंजीपतियों व व्यापारियों से ज्यादा मेल खाता है। ये सभी शासन-प्रशासन व नेताओं द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार से बहुत दुखी दिखते हैं। लेकिन ये लोग पूजीपतियों को भ्रष्टाचार करने का मूल अधिकार देना चाहते हैं। नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। किन्तु पूंजीपतियों के भ्रष्टाचार पर चुप रहते हैं। नेताओं की फिजूलखर्ची पर छाती पीटते हैं। पूंजीपतियों की फिजूलखर्ची पर चुप रहते है। सच्चाई तो यह है कि ये लोग भ्रष्टाचार का मौका खुद अपने लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं। जब दूसरा नेता व सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार करने में सफल होता हुआ दिखता है। तो इनकी रातों की नींद हराम हो जाती है।
वोटरशिप पर बड़े दलों का रुख
आम तौर पर धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी, भाजपा गरीबों की दुश्मन पार्टी है। किन्तु संसद में चले वोटरशिप अभियान ने इसे गलत साबित कर दिया है। कारण यह है कि वोटरशिप का समर्थन करने वाले कांग्रेस के सांसदों की संख्या की तुलना में भाजपा के सांसदों की संख्या ज्यादा थी। कांग्रेस के 11 सांसद थे। भाजपा के 48 सांसद थे। यह मजेदार बात रही कि दलितों व पिछड़ों के स्वाभिमान पर काम करने वाले प्रमुख सांसदों ने ‘असंभव’ या ‘देश को निकम्मा बनाने वाला प्रस्ताव’ कहकर वोटरशिप का विरोध किया। मजेदार बात यह भी थी कि भाजपा व कांग्रेस के दलित सांसदों ने वोटरशिप का जोरदार समर्थन किया। संसद के सर्वे में जो नतीजा निकला। कमोवेश वही नतीजा आम जनता में हुये सर्वे में भी निकल रहा है। जातीय, साम्प्रदायिक, भाषाई, क्षेत्रवादी व संकीर्ण राष्ट्रवादी राजनीति करने वाले समाजसेवी व नेता लोगों ने भी वोटरशिप का विरोध किया। सन् 1998 से लेकर सन् 2015 तक बिना मीडिया के सहयोग के वोटरशिप की बात करीब भारत के एक करोड़ लोगों तक पंहुच चुकी है। माउथ पब्लिसिटी के माध्यम से यद्यपि सर्वे जारी है। फिर भी जो प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है, उससे ये बात साफ है कि सभी अमीर लोग वोटरशिप के खिलाफ नहीं हैं। ये बात भी साफ हो चुकी है कि सभी गरीब लोग वोटरशिप के पक्ष में नहीं हैं। यद्यपि पूरे देश का सर्वे पूरा होने में अभी काफी वक्त लगेगा। किन्तु ऐसा लग रहा है कि औसतन 100 में से 6 लोग वोटरशिप के खिलाफ हैं। 100 में से 60 से कुछ ज्यादा लोग वोटरशिप के पक्ष में हैं। बाकी लगभग 34 प्रतिशत लोग इस विषय में अस्पष्ट हैं। वे वोटरशिप को असंभव व अव्यवहारिक कहकर टाल मटोल कर रहे हैं। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रें में भी वोटरशिप के विरोधियों, भ्रमित लोगों व समर्थकों का प्रतिशत अलग-अलग है। यानी जरूरी नहीं कि सब जगह उक्त प्रतिशत 6ःए60ःए34ः का ही हो।
यह भी देखने को मिला कि ओ- मनोवृत्ति के नेता लोग केचुए की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। उनका इस्तेमाल बड़ी पार्टियां कर ही हैं। केचुओं को तालाब के पानी में लटका कर मछली फंसाया जा रहा है। यहां मछली का मतलब वोटर लोग हैं। बड़ी पार्टियों के मुखिया लोग मछली के शिकारी हैं। चुनाव पानी के तालाब की भूमिका में हैं। चुनावों में वोटरों की वोट को पकड़ने में टिकट पाने वाले लोग केंचुए की तरह इस्तेमाल किये जा रहे हैं। इस काम में भाजपा व कांग्रेस- यही दो पार्टियां सबसे आगे दिखीं।
ओ- वृत्ति के सज्जन लोगों को चुनाव लड़ने के लिये टिकट दिया जाता हैं। इन्हीं चुम्बकों के सहारे वोट खींची जाती है। किन्तु चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक इनकी बातें सुनी नही जाती। ये ओ- वत्ति के सज्जन केवल आम जनता के प्रति ही सज्जन नहीं होते। अपितु एबी- वृत्ति के पार्टी अध्यक्षों व उनकी पालतू एबी- वृत्ति वाली पार्टी अध्यक्षों की टीम के प्रति भी सज्जन होते हैं। पार्टी अध्यक्षों की टीम में घुसने के लिये जिस आक्रामकता की जरूरत होती है। ‘दानी वृत्ति’ होने के नाते वो आक्रामकता ओ- वृत्ति के सज्जनों में नहीं होती। इसीलिये वोटरशिप के प्रस्ताव को एबी- नेताओं की अगुआई में काम करने वाली पार्टियों के उन सांसदों ने संसद में पेश किया, जो ओ- वृत्ति के थे। किन्तु पेश करने वाले सांसद अपनी-अपनी पार्टियों के अध्यक्षों की टीम के अत्याचार का विरोध नहीं कर सके। इसकी वजह से बहुसंख्यक फ्ओय् जनों पर अल्पसंख्यक फ्एबीय् जनों का राज चल रहा है। परिणामस्वरूप नये नाम व नये रूप में दास प्रथा बदस्तूर कायम है।
वोटरशिप के प्रस्ताव के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय साजिश
खुद को राजनीति का पण्डित समझने वाले लोग भी लोकसभा चुनाव सन् 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी की आश्चर्यजनक चुनावी जीत का कारण नहीं समझ पा रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि लोग कांग्रेस के घोटालों व मंहगाई से परेशान थे। इसलिये मोदी को वोट दे डाला। कुछ लोग कहते हैं कि मोदी की सरकार देश के व अमरीका के उन खरबपतियों ने व उन आम लोगों ने बनायी है, जो मुसलमानों को खतरा मानते हैं। इसलिये सबक सिखाना चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि मोदी लोगों को यह सपना दिखाने में कामयाब हो गये कि मोदी सरकार आयेगी तो कथित गुजरात मॉडल पर गांवों में 24 घंटे बिजली आयेगी। मंहगाई, पैसे की तंगी, बेरोजगारी खत्म हो जायेगी। हर आदमी के बैंक खाते में 15 लाख रूपया जमा हो जायेगा। कुछ लोग कहते हैं कि इस बार मीडिया के माध्यम से चालाक ब्राह्मण लोग पिछड़ी जातियों को बेवकूफ बनाने में कामयाब हो गये। ये लोग जहरखुरानों की तरह उनकी वोट झटक ले गये।
लेकिन राजनीति के ये सभी पण्डित सन् 2011 के अप्रैल व जुलाई के अन्ना के 24 घंटे के ऐतिहासिक मीडिया प्रचार की वजह बता पाने में नाकाम हैं। राजनीति के पण्डित ये बताने में भी नाकाम हैं कि आम आदमी के लिये बिना कोई राजनीतिक-आर्थिक दर्शन दिये ही मीडिया ने आम आदमी के नाम पर बनी एक नई पार्टी का 24 घंटे और बारह महीने प्रचार क्यों किया? अपने जन्म के साल भर के अंदर ही इस पार्टी को इतनी वोट कैसे मिल गई? इतने कम समय में दिल्ली में अपनी सरकार बनाने में सफल कैसे हो गई?
गणेश की मूर्तियां दूध पीने लगी हैं। सन् 1994 में ये अफवाह सभी टी वी चैनलों ने मिल कर उड़ायी थी। राजनीति के पण्डित इसका उत्तर देने में आज 20 साल बाद भी नाकाम हैं। जयप्रकाश नारायण जी ने संपूर्ण क्रांति का कोई ब्लू प्रिंट नहीं दिया था। इसके वावजूद सन् 1974-78 में जयप्रकाश नारायण को मीडिया ने एकमत होकर संपूर्ण क्रांति के जननायक के रूप में प्रचारित क्यों किया था? राजनीति के अधिकांश पण्डित इसका उत्तर देने में आज 40 साल बाद भी नाकाम हैं। इन सवालों का जो उत्तर है। वही उत्तर है-मोदी की आश्चर्यजनक चुनावी जीत का। इन सभी घटनाओं के पीछे एक ही कारण था। वह कारण था-गरीबों की हमदर्द तत्कालीन सरकारों का तख्तापलट करना और अमीर परस्त व्यक्ति को सत्तासीन करना।
सन् 1972 में इंदिरा सरकार व सन् 2009 में मनमोहन सरकार- दोनों ने गरीबों के हक में कई कानून बनाने के कथित अपराध किये थे। दोनों का तख्तापलट करने के लिये निजी पैसे से चलने वाले मीडिया का दोनों बार दुरुपयोग हुआ। लोग गुमराह हुये। अपने दुश्मनों को वोट दे डाला। मनरेगा, कैश ट्रांसफर स्कीम, आधार कार्ड, 35 किलो अनाज देने वाले प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आदि गरीबों के कल्याण के लिए बनी योजनाओं के कारण देश के खरबपति नाराज हो गये। उनको लगा कि यह सरकारी खजाने का दुरुपयोग है। अमरीका के पूंजीवाद के रखवालों को लगा कि भारत में समाजवादी मानसिकता का आदमी गलती से राजसत्ता पर पहुंच गया है। उसे उखाड़ना चाहिये। देश-विदेश के पूंजीवादी मानसिकता के अमीरों-गरीबों के साझे प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप कांग्रेस की सरकार सन् 1976 में व सन् 2014 में हारी। कांग्रेस एक सत्ता पिपासु पार्टी है। यह बिना सत्ता के नही रह सकती। इसलिये इसने 1976 की हार के बाद गरीबों का दामन छोड़कर अमीर परस्ती का रास्ता अपनाया। अब फिर 2014 की हार के बाद कांग्रेस यही करने वाली है।
इस सत्य को बहुत से लोग कहने से डरते हैं। क्योंकि उन्हें कांग्रेस का आदमी मान लिया जायेगा। उनकी निष्पक्ष छवि पर धब्बा लग जायेगा। अपने निजी स्वार्थ में लोग सत्य छिपाने का काम करते रहे हैं। जबकि ऐसा करना इन पंक्तियों के लेखक को कभी भी ठीक नहीं लगा।
इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी परिकल्पना को वोटरशिप के नाम से संसद में 137 सांसद सन् 2005 में ही पेश कर दिया था। इसमें निजी व सार्वजनिक के अलावा वोटरों की ‘साझी सम्पत्ति’ को मान्यता देने की मांग की गई थी। इसका किराया, यानी औसत आय की आधी रकम वोटरों के खाते में हर महीने देने की मांग की गयी थी। 137 सांसदों द्वारा यह प्रस्ताव संसद में पेश किया गया था।
मनरेगा, कैश ट्रांसफर स्कीम, आधार कार्ड, 35 किलो अनाज देने वाले प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आदि योजनाओं के कारण देश के पूंजीवादी खरबपतियों के मन में यह भय सताने लगा था कि कांग्रेस इन कानूनों के रास्ते पर चलकर वोटरशिप कानून बनाने की ओर बढ़ रही है। बाद में अन्ना आन्दोलन से सम्बन्धित घटनाओं ने साबित िकया कि खरबपतियों के इस आशंका को विश्वास में बदलने का काम इस आन्दोलन के एक सूत्रधार ने स्वयं किया। इस व्यक्ति ने स्वयं को खरबपतियों के सामने खरबपतियों का मित्र और आम आदमी के सामने खरबपतियों के शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया। उसने अपने आपको आम आदमी का हितैषी साबित करने के लिए इसी नाम से पार्टी का गठन किया।
समानान्तर एक अन्य घटना भी घट रही थी। देश के पूंजीवादी खरबपतियों के मन में मनरेगा कानून बनने के बाद सन् 2005 से ही गुस्से का पेट्रोल फैल रहा था। 2 जी स्पेक्ट्रम की सरासर झूठी घटना के प्रचार ने इस पेट्रोल में माचिस मारने का काम कर दिया। मोबाइल कम्पनी चलाने वाले 13 खरबपतियों पर सीबीआई ने एफ-आई-आर- दर्ज कर लिया। इस मामले में देश के कैबिनेट मंत्री को सीबीआई ने गिरफ्रतार करके जेल में डाल दिया। इसके बाद फरवरी-2011 में उक्त 13 खरबपतियों में से एक-यूनीनार कम्पनी के मालिक को भी गिरफ्रतार कर लिया। इससे स्पष्ट हो गया कि सीबीआई अब शेष 12 खरबपतियों को भी गिरफ्रतार करेगी।
ऐसी स्थिति में उन लोगों ने एक तीर से दो निशाने साधे। निजी पैसे से चलने वाले टीवी चैनलों को कांग्रेस सरकार को बदनाम करने के काम में लगाया गया। जबकि बाद की घटनाओं ने साबित किया कि कोयला घोटाले व 2 जी स्पेक्ट्रम घोटालों को घोटाला कहना ही ठीक नहीं था।
कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिये खरबपतियों ने अन्ना व उनके एक कथित शिष्य को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया। अपनी इसी नीति के कारण अन्ना को 24 घंटे प्रचार करके महात्मा गांधी से भी बड़ी हस्ती बताया गया। 13 खरबपतियों ने इसके बाद कांग्रेस की जगह लेने के लिये सन् 1975 की तर्ज पर आम आदमी के नाम से अपनी एक पार्टी बनाई। इस पार्टी का 24 घंटे प्रचार करने के लिये टी वी चैनलों को लगाया गया। इस काम के लिये चैनलों को मोटी रकम दी गई। लोग इस साजिश को समझ नहीं पाये। जनवरी 2014 में हुये दिल्ली विधानसभा के चुनावों में नवगठित पार्टी को वोट दे दिया। कांग्रेस ने तपाक से बाहर से समर्थन देकर इस नई पार्टी की सरकार बनवा दिया। दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा बन गई। दिल्ली सरकार की लगाम कांग्रेस के ही हाथ में रही। इस घटना के कारण उन लोगों को झटका लगा, जो लोग वोटरशिप की ओर बढ़ने के कारण कांग्रेस का हाथ पैर तोड़ कर बैठाना चाहते थे। त्रिशंकु विधानसभा देखकर खरबपतियों को लगा कि यदि अन्ना के शिष्य का आगे भी टीवी में प्रचार जारी रखा गया तो 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद त्रिशंकु संसद बनने की बड़ी संभावना है। ऐसी दशा में कांग्रेस को सत्ता से पूरी तरह बाहर करना संभव नहीं हो पायेगा।
आनन-फानन में खरबपतियों ने अपनी नीति बदली। अन्ना के चेले को छोड़कर मोदी को अपनी कठपुतली बनाने का फैसला किया। हालांकि प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले अन्ना के शिष्य ने मुख्यमंत्री की कुर्सी त्याग कर यह प्रचार करने का प्रयास किया कि वह सत्ता पिपासु नेताओं से अलग है। किन्तु तब तक खरबपतियों की नीति बदल चुकी थी। मुख्यमंत्री की कुर्सी के त्यागने वाले को मीडिया ने त्यागी-तपस्वी के रूप में प्रचारित करने से मना कर दिया। कैमरे का मुंह मोदी की ओर मोड़ दिया। फिर 24 घंटे मोदी के महिमा-मण्डन में टीवी की खबरें ठीक उसी तरह आने लगीं, जैसे अन्ना व उनके चेले की खबरें आती थीं। टीवी का रुख बदल जाने के कारण लोगों का रुख भी बदल गया। अब वोटरों का झुकाव अन्ना के चेले की बजाय मोदी की ओर हो गया। इसीलिये लोकसभा चुनाव-2014 में मोदी की आश्चर्यजनक जीत हुई।
खरबपतियों की ओर से मोदी के सामने दो शर्त रखी गई है। पहली यह कि कांग्रेस को सत्ता के आसपास तक न फटकने दें। दूसरी यह कि वोटरशिप की दिशा में बढ़ रहे काम को रोकें। पहला काम मोदी ने कर दिया है। दूसरा काम करने का संकेत दे दिया है। कांग्रेेस की जन-धन योजना को जन-कर्ज योजना में बदल दिया है। कांग्रेस बेशर्त वोटरशिप देने के रास्ते पर आगे बढ़ रही थी_ मोदी जन-धन के नाम पर कर्ज बांट कर सूदखोरों की तरह लोगों की लगाम अपने हाथ में लेने की योजना चला रहे हैं।
स्पष्ट है कि इतिहास मोदी को भारत मां के सपूतों में नहीं, भारत मां की काया पर पैदा हो गये सफेद दाग, ल्यूकोडर्मा के रूप में याद करेगा। इस कलंक से मोदी बच सकते हैं। बशर्ते मोदी खरबपतियों की कठपुतली व एजेंट की तरह काम करने से मना कर दें। अन्ना आंदोलन की 24 घंटे की मीडिया प्रचार के लिये दोषी लोगों की तलाश का व दण्डित करने का काम सीबीआई को सौंपें। यदि वाकई वोटरशिप अधिकार रोकने के लिये उनको सत्ता में नहीं बैठाया गया है, तो संसद की गोयल कमेटी की सिफारिशों को मानते हुये संसद से वोटरशिप का कानून पारित करवायें। यदि मोदी ऐसा करने में नाकाम रहते हैं तो उनको नायक नहीं, खलनायकों में ही गिना जायेगा।

महापुरुषों की आवाज और वोटरशिप

1) राजनैतिक आजादी की लड़ाई जीत लेने के बाद मैं अब आर्थिक आजादी की लड़ाई शुरू करने जा रहा हूँ। -महात्मा गांधी
2) वोट का अधिकार लोगों को राज्य के राजनैतिक फैसलों में भागीदारी दिलाता है, वोटरशिप का अधिकार जनता को राज्य के आर्थिक फैसलों में भागीदारी देता है। -विश्वात्मा
3) हम विश्व सरकार की ओर बढ़ रहे हैं!- जवाहर लाल नेहरू
4) मुक्त व्यापार व इण्टरनेट के इस युग में विश्व सरकार के बिना देशों की सरकारें सिर विहीन धड़ बन गईं हैं। – विश्वात्मा
5) समाजवाद स्वीकार होगा, लेकिन मेरे मरने के बाद!
-डॉ राम मनोहर लोहिया
6) 26 जनवरी 1950 के दिन हम अंतर्विरोधों के दोहरे जीवन में प्रवेश कर रहे होंगे। राजनीति में हमें समानता मिलेगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट को स्वीकार कर रहे होंगे। लेकिन अपने सामाजिक व आर्थिक जीवन में इस आदर्श को अस्वीकार कर रहे होंगे। – डॉ- बी- आर- अम्बेडकर 2 सितम्बर, 1953(राज्यसभा अध्यक्ष से)
7) वोट के हक ने न्यूनतम राजनैतिक समता कायम किया, वोटरशिप का हक न्यूनतम आर्थिक समता कायम कर देगा। -विश्वात्मा
8) आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनैतिक लोकतंत्र निरर्थक है। आर्थिक राष्ट्रवाद के बिना राजनैतिक राष्ट्रवाद धोखा है। -पं- दीनदयाल उपाध्याय
9) जिस प्रकार वोट राजनीतिक लोकतंत्र का साधन है, उसी प्रकार वोटरशिप आर्थिक लोकतंत्र व आर्थिक राष्ट्रवाद का उपाय है। -विश्वात्मा
10)धन और धरती बंट के रहेगी, भूखी जनता चुप न रहेगी। -आचार्य विनोवा
11)खेत-खलिहान-मकान-दुकान-मिल-कारखाने-जमीन-मशीन आदि सब गाय की तरह हैं। इन सब से पैदा होने वाला पैसा दूध की तरह है। वोटरशिप धरती रूपी इन गायों में बटवारा नहीं, पैसे रूपी दूध में बंटवारा है। परिवार में 8 गायें हों, तो 10 सदस्यों में उनको बराबर-बराबर नहीं बांटा जा सकता। हां, दूध बांटा जा सकता है। – विश्वात्मा
12)राजा को राम जैसा समदर्शी होना आवश्यक है -तुलसीदास
13)वोटरशिप समाज से समदर्शी व्यक्ति को तलाश कर राजा बना देगा। -विश्वात्मा
14) फ्आने वाली पीढ़ियां आज की पीढ़ियों से कहेंगी कि क्या उस वक्त कोई एक भी विचारक पैदा न हुआ, जो कहता कि खाने-पीने के लिए काम करने की जबरदस्त शर्त लगानी अनैतिक है।य्-ओशो (1982)
15) वोटर पेंशन (वोटरशिप) जीने का बिना शर्त अधिकार देती है। -विश्वात्मा (सन् 1996)
16) सभी नागरिकों की न्यूनतम जरूरतें पूरी करना राज्य की जिम्मेदारी है। -आनन्दमूर्ति
17)साम्यवाद और पूँजीवाद के बीच का रास्ता भारत का रास्ता है। -जवाहरलाल नेहरू
18) वोटरशिप इन दोनों के बीच का रास्ता है। -विश्वात्मा
19) औसत रहन-सहन ही अहिंसक रहन-सहन है। आचार्य श्रीराम शर्मा
20)वोटरशिप औसत आय रेखा से ज्यादा ऊपर व ज्यादा नीचे -दोनों को औसत रहन-सहन का कानूनी अवसर देती है। -विश्वात्मा
21)न्याय की स्थापना सर्वहारा के शासन से ही संभव है। -कार्ल मार्क्स
22)राजसत्ता अर्थसत्ता की छाया मात्र है। शासन की असली ताकत राजसत्ता की कुर्सी में नहीं, पैसे में निहित है। न्याय की स्थापना के लिए सर्वहारा के सभी लोगों को कुर्सी नहीं, पैसा (वोटरशिप) देना संभव है। -विश्वात्मा
23) ब्याज बिना काम का, यानी हराम का धन है। -कुरान
24) आज के जमाने में खेत, खलिहान, मकान, दुकान, मोटर, मशीन का किराया व सम्पत्तियों की मूल्यवृद्धि खान से मिला धन भी ब्याज की तरह ही बिना काम का धन है। ये सबका साझा धन है, इसलिये अकेले खाना हराम है, पाप है। जबकि मिल-बांट के खाना धर्म है, पुण्य है। वोटरशिप साझे धन को सबमें मिल-बांट कर खाने का उपाय है। -विश्वात्मा
25) गरीबी का सच्चा समाधान आज विश्वात्मा भरत गांधी के पास है। केन्द्र सरकार इस पर ध्यान दे- डॉ0 भरत झुनझुनवाला, अर्थशास्त्री
26) वोटरशिप संविधान बनाने वालों की मंशा को ही आगे बढ़ाती है। इससे मतदान प्रतिशत बढ़ जायेगा, जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है। -डॉ- सुभाष कश्यप (संविधान विशेषज्ञ)

मिशन के नारे

राजनीति सुधार संकल्प है, वीपीआई ही विकल्प है।
वोटरों का वेतन-वोटर पेंशन
मशीन मजदूरी सबमें बांटो, अमीर-गरीब की खाईं पाटो।
नफरत का अब दामन छोड़ो, वीजा तोड़ो दुनिया जोड़ो।
विश्वात्मा को सुनो, वीपीआई को चुनों।
अमीर-गरीब की संसद-सरकार, अलग-अलग हों ये दरकार।
मीडिया राज हटाओ, वोटर राज लाओ।
पांच मंजिला हो सरकार, बनें अमीरी सीमादार।
नो वोटरशिप, नो रेस्ट।
राजनीति का करो सुधार, जिससे जग का हो उद्धार।
वोटर पेंशन चालू करो, वरना कुर्सी खाली करो।
बाबा तेरा मिशन अधूरा, वोटर पेंशन से होगा पूरा।
गरीब दलितों को संरक्षण दो, समावेशी आरक्षण दो।
सभी समस्या एक निदान, वोटर पेंशन का अभियान।
विश्व बदलने का पैगाम। सज्जन सत्ता, वोटर को दाम।
अर्थ गुलामी की जंजीरें, तोड़ डालना ठानी है,
जिस वोटर का खून न खौला, खून नहीं वह पानी है।
हमारा मन, जन-जन को धन_ सज्जन को सत्ता, जग में अमन।
गरीबी मवाद, गुलामी फोड़ा_ मवाद न पोंछो, सुखाओ फोड़ा।
दलित आरक्षण का बंटवारा, गरीब-अमीर का न्यारा-न्यारा।
जो एमजीसी की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।
संगठन की उपलब्धियां
1) वोटरशिप के लिए पूरे देश में आन्दोलन कर रही वोटर्स पार्टी इंटरनेशनल व अन्य तमाम संगठनों के प्रभाव से मजबूर होकर केन्द्र सरकार ने 2019 में छोटे किसानों को प्रतिमाह रुपये 500 देकर वोटरशिप को सैद्धांतिक मंजूरी दी। इसके अलावा मजदूरों को 60 साल की उम्र के बाद रु- 3000 प्रतिमाह देने की घोषणा की, किन्तु दिया नहीं। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इसको मुख्य मुद्दा बनाया तथा सत्ता में आने के बाद गरीबों को रु- 6000 देने की घोषणा की थी। श्रमयोगी मानधन योजना के नाम से सन् 2023 से केन्द्र सरकार द्वारा रू- 3000/- प्रति व्यक्ति प्रतिमाह देने का कार्य प्रगति पर है। हालांकि अगर वोटरशिप आन्दोलन चलाने वाले इन वादों से आश्वस्त होकर घर बैठ गये, थक गये या उनका धैर्य टूट गया, तो सरकार और उक्त सभी दल नकद पैसा देने से मुकरने और यू-टर्न लेने में देर नहीं करेंगे। वोटरशिप की लोकप्रियता जनता में देखते हुए लगभग 1000 राजनीतिक पार्टियों ने जनता में यह मुद्दा उठाना शुरु कर दिया है।
2) गरीबों पर जब भी खर्च करने की बात आती थी तो सन् 2004 तक आम तौर पर सभी सरकारें देश में पैसा न होने का रोना रोती थीं। लेकिन जब वोटरशिप का मामला संसद में पहुंचा, तो जनता को सीधे आर्थिक लाभ देने की घटनाएं घटने लगीं।
3) छत्तीसगढ़ सरकार दिसम्बर 2007 में छत्तीसगढ़ विकास पार्टी द्वारा उठाये गये वोटरशिप के मुद्दे का प्रभाव घटाने के लिए प्रदेश के सभी 36,00,000 गरीब परिवारों को रू- 3-00 प्रति किलो चावल देने की घोषणा की। यह योजना अभी भी जारी है।
4) बिहार में नालंदा जिले के सभी पार्टियों के जिलाध्यक्षों ने वोटरशिप और पंचायतों के जनप्रतिनिधियों को वेतन-भत्ता देने के लिए आंदोलन किया। प्रदेश सरकार को मजबूर होकर जनप्रतिनिधियों को वेतन-भत्ता देने की बात 28 मार्च 2008 को मानना पड़ा। किन्तु वोटरशिप की बात को केन्द्र सरकार का विषय बताकर टाल दिया।
5) वोटरशिप आंदोलन से जुड़े एक बुजुर्ग सांसद श्री कादेर मोहिद्दीन की सलाह पर डी- एम- के- नेता श्री करुणानिधि ने प्रदेश सरकार के लिए वोटरशिप देना मुश्किल मानते हुए सन् 2007 में विधान सभा चुनावों के समय जनता से वादा किया कि सत्ता में आने पर सभी परिवारों को एक-एक रंगीन टेलीवीजन दिया जायेगा। बाद में टीवी दिया भी।
6) गरीबों के नाम पर पैसे की कमी का रोना रोने वाली केन्द्र सरकार को पार्लियामेंटेरियंस कौंसिल फॉर वोटरशिप (च्ब्ट) से जुड़े संसद सदस्यों के दबाव में आकर नरेगा (राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना) बनाना पड़ा। नरेगा से आज गरीबों के पास लगभग 40 हजार करोड़ हर साल पहुंच रहा है।
7) वोटरशिप आंदोलन का ही प्रभाव था कि केन्द्र सरकार को फरवरी 2009 में ही यह भी घोषणा करनी पड़ी कि केन्द्र सरकार देश के सभी परिवारों को रू- 3000 महीने की आय की गारंटी देने वाली योजना पर 2-5 लाख करोड़ रूपया खर्च करेगी।
8) गरीबों के नाम पर पैसे की कमी का रोना रोने वाली केन्द्र सरकार को जब वोटरशिप के रूप में वोटरों के आर्थिक अधिकारों का सवाल उठता दिखा तो खाद्य सुरक्षा विधेयक-2011 बनाने के लिये मजबूर होना पड़ा। इसमें लगभग 100,000 करोड़ रूपया खर्च होने की संभावना है।
9) उक्त सभी योजनाओं को मिला दिया जाये, तो वोटरशिप देने के लिए जरूरी रकम की आधी रकम (लगभग 14 लाख करोड़) का इंतजाम हो जाएगा। कांग्रेेस सरकार की सोच में कमी बस इतनी है कि वोटरों को नौकर व काम करने के लिए पालतू गुलाम मानने को तो तैयार है। किन्तु परिवार का सदस्य मानने को तैयार नहीं है। इसलिए वोटरशिप आंदोलन के दबाव में आकर सरकार वोटरों पर दया तो दिखा रही है। लेकिन उनका हक देने को तैयार नहीं है।
वोटरशिप अधिकार के लिए असली और नकली आंदोलनकारी
वोटरों को वोटर पेंशन/वोटरशिप का कानूनी अधिकार दिलाने के लिए सन 1998 में तो केवल एक ही संगठन था। जिसका नाम था- आर्थिक आजादी आंदोलन परिसंघ। सन 2003 में वोटर्स पार्टी नाम के एक संगठन का भी उदय हो गया। इसका नेतृत्व वोटरशिप विचार के जन्मदाता यानी इस पुस्तक के लेखक श्री विश्वात्मा (भरत गांधी) के हाथ में था। सन 2005 से 2008 के बीच सांसदों के बीच इस अधिकार पर सहमति बनाने के लिए एक अभियान चलाया गया। सांसदों को प्रशिक्षित किया गया। इसके परिणाम स्वरूप सन 2011 में संसद की एक कमेटी में इस प्रस्ताव को मंजूर कर लिया।
2007 में छत्तीसगढ़ की एक नवगठित राजनीतिक पार्टी ने यह मुद्दा जनता के बीच उठाया। किंतु उसको विधानसभा के चुनाव में बहुत ज्यादा वोट नहीं मिले। इसलिए उसने यह मुद्दा छोड़ दिया। यही काम कानपुर मंडल में एक दूसरी नवगठित राजनीतिक पार्टी ने किया। उस पार्टी को काफी जनसमर्थन मिला। किंतु सन 2009 के आम चुनाव में इस पार्टी के मुखिया ने कांग्रेस का टिकट ले लिया। सांसद बन गया। इसके बाद इस पार्टी ने वोटरशिप की आवाज उठानी बंद कर दी। सांसद बनने के बाद इस व्यक्ति ने संसद में कभी भी वोटरशिप के मुद्दे पर कोई प्रयास नहीं किया।
वोटरशिप के मुद्दे पर सांसद बनने की इस घटना के बाद पूरे देश में वोटर पेंशन यानी वोटरशिप के मुद्दे को अब बहुत तेजी से छोटे-छोटे राजनीतिक दलों ने वोटरशिप के मुद्दे को अपने-अपने घोषणा पत्र में डालना शुरू कर दिया। पर्चे-पंपलेट में छापना शुरू कर दिया। इन तमाम राजनीतिक संगठनों ने पब्लिक के बीच इस मुद्दे पर समर्थन हासिल करने का अभियान शुरू कर दिया। एक अनुमान के मुताबिक सन 2020 तक भारत के चुनाव आयोग में पंजीकृत लगभग 1000 राजनीतिक दल वोटरशिप/वोटर पेंशन के मुद्दे पर जनता से समर्थन मांग रहे हैं। इससे वोटर पेंशन/वोटरशिप के समर्थकों की शक्ति विभाजित होकर टूट गई है। क्योंकि ये सारे दल कभी एक साथ एक मंच पर नहीं आये।
वोटर पेंशन/वोटरशिप के आंदोलनकारी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने के लिए श्री विश्वात्मा (भरत गांधी)ने सन 2010 में पार्टियों के भागीदारी व शांति पर वैश्विक गठबंधन (गैप) का एक लिखित संविधान तैयार किया। लेकिन अधिकांश दल इस गठबंधन के लिखित संविधान को इसलिए मानने के लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि वह किसी भी समय सत्ताधाारी अमीर दल के साथ जाने का रास्ता खुला रखना चाहते थे। जो काम कानपुर मंडल की पार्टी ने 2009 में किया और लाभ उठाया, वही लाभ उठाने की नीयत के कारण वोटरशिप की बात को सही मानने वाले राजनीतिक दल एकजुट होने के लिए तैयार नहीं हुए। जो दल तैयार हुए। उनकी संख्या बहुत कम है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि वोटरशिप के मुद्दे को जनता सुनती है और समर्थन करती है। इसलिए सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर बोलना अच्छा लगता है। किंतु उनकी निष्ठा वोटरशिप के प्रति नहीं है। उनका उद्देश्य केवल इस मुद्दे का लाभ उठाकर चुनाव जीतने का है। या वोटरशिप के कारण मिले जनसमर्थन को सत्ताधारी राजनीतिक दलों के हाथ बेचकर पैसा कमाने की है।
वोटरशिप एक संवेदनशील मुद्दा है। विश्व भर के वोटरों का भविष्य वोटरशिप से जुड़ा है। अतः अवसरवादी राजनीति से वोटरशिप अभियान को बचाने के लिए वोटरों को इतना जागरूक होना पड़ेगा। वोटरपेंशन/वोटरशिप के आन्दोलनकारियों को इस बात के लिए प्रयास करना कि वह वोटर पार्टियों को वोट देने की बजाय भागीदारी व शांति पर वैश्विक गठबंधन (गैप) गंठबंधन को वोट देना शुरू करें।
विश्व परिवर्तन मिशन से कैसे जुड़ें
देश और विश्व में आर्थिक असमानता व उसके कारण उपजी समस्याओं का उपचार करने के लिए विश्व भर के सभी समुदायों, सभी जातियों, सभी सरकारों, सभी राजनैतिक पाटियों, सभी कम्पनियों व सभी विचारधाराओं के लोगों को एक मंच पर आना होगा। आपसे अपील है कि देश व दुनिया भर में चल रहे नकली लोकतंत्र को असली लोकतंत्र बनाने और देश व दुनिया की राजनीति को सुधारने के काम में आप हमारे सहयोगी बनें। अपनी-अपनी पार्टियों से भीष्म मोह त्याग कर विश्व परिवर्तन मिशन से जुड़ें।
यह मंच लिखित संविधान पर काम कर रहा है। इस मंच के सभी संगठन दक्षिण एशियाई देशों की एक साझी सरकार, साझी संसद, साझा न्यायालय बनाने के लिये काम कर रहे हैं। यह मंच दक्षिण एशियाई देशों का साझा चुनाव आयोग, साझा आयकर विभाग, साझी मुद्रा, साझी सेना बनवाने के उद्देश्य के साथ काम कर रहा है। यह मंच पहले चरण में दक्षिण एशियाई देशों का और दूसरे चरण में एशिया के सभी देशों का और तीसरे चरण में पूरी दुनिया के सभी देशों का साझात करवाने की रणनीति के साथ काम कर रहा है। निम्न लिंक के माध्यम से विश्व परिवर्तन मिशन से जुड सकते हैं-
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अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों को इस मिशन से जोड़े
वोट की कीमत चुनाव लड़ने वाले लोग और जनप्रतिनिधि जितना समझते हैं, उतना वोटर भी नहीं समझते। वोट के अधिकार का लाभ जितना जनप्रतिनिधियों को मिलता है, उतना वोटरों को भी नहीं मिलता। इसलिए चुनाव जीतने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह वोटरशिप का अधिकार दिलाने में वोटरों की मदद करें। इस पुस्तक के पाठकों से निवेदन है कि ग्राम प्रधानों और सभासदों को समझाएं कि वे वोटरशिप अधिकार देने के लिए अपनी ग्राम सभा और वार्ड सभा से प्रस्ताव पारित करें और प्रधानमंत्री कार्यालय को एक साल में दो बार भेजें। आप अपने क्षेत्र के वर्तमान और निवर्तमान जनप्रतिनिधियों – जैसे ग्राम प्रधानों और सभासदों, क्षेत्र पंचायत सदस्यों, ब्लाक प्रमुऽों, जिला पंचायत सदस्यों, जिला पंचायत अध्यक्षों, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों को नीचे का लिंक उनके व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के साधनों से भेजें और उनसे यह सर्वे फार्म भरने का निवेदन करें। जिससे वोटर समाज सर्वे फॉर्म भरने वालों की मंशा जान सके और मिशन में उनकी भूमिका तय कर सकें। नीचे दिये गये लिंक को आप उन लोगों को भी भेज सकते हैं, जो आपके क्षेत्र में किसी न किसी तरह का संगठन चलाते हैं।
ीजजचरूधधउहब-ूवतसकधमदधरवपद-उहब
अपने क्षेत्र में चलाएं हस्ताक्षर अभियान
आपसे निवेदन है कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद इस पुस्तक को आलमारी में रऽ कर भूल न जाएं। यदि आप ऐसा करते हैं, तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से आपको वैसे ही आत्मग्लानि होगी, जैसे दवा आपकी जेब में आ चुकी है, लेकिन उसी दवा के अभाव में आपके सामने रोगी दर्द से तड़प रहा है और मर रहा है। यह पुस्तक अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें। आप 9696 123 456 पर व्हाट्सएप करके इस पुस्तिका की प्रतियों मंगा सकते है, तथा बांट सकते हैं। पुस्तिका के अन्त में दी गयी हस्ताक्षर शीट पर हस्ताक्षर अभियान चलाएं। हस्ताक्षर कराने के बाद हस्ताक्षर शीट की फोटो ऽींचकर आप व्हाट्सएप नंबर 9696123456 पर व्हाट्सएप कर दें। इसके बाद हस्ताक्षर शीट की एक प्रति एक ज्ञापन के साथ नत्थी करके प्रधानमंत्री कार्यालय, नई दिल्ली को भेज दें और एक अपने पास सुरक्षित रख लें। यह सिलसिला लगातार चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री कार्यालय में हस्ताक्षर शीट की प्रति भेजने के बाद आप आप नीचे दिये लिंक पर हस्ताक्षर अभियान की जानकारी दे सकते हैं-
ीजजचरूधधउहब-ूवतसकधमदधरवपद-उहब
चंदा देने वालों को सरकार से मिलती है टैक्स में छूट
वोटरों को वोटरशिप का अधिकार दिलाने के लिए कई अराजनीतिक संगठन और राजनीतिक पार्टियाँ कार्यरत हैं। विश्व परिवर्तन मिशन ऐसा ही एक अराजनीतिक संगठन है। जो लोग अपना चंदा ’विश्व परिवर्तन मिशन (मिशन फॉर ग्लोबल चेंज)’ को देते हैं, उनको आयकर में छूट मिलती है।
जो राजनीतिक पार्टियां वोटरशिप अधिकार दिलाने के लिए काम कर रहे हैं। उसमें वोटर्स पार्टी इंटरनेशनल प्रमुऽ है। यह पार्टी विश्व परिवर्तन मिशन से संबद्ध है। यह एक रजिस्टर्ड राजनीतिक पार्टी है। आयकर अधिनियम के अनुसार रजिस्टर्ड पार्टी को चंदा दिया जाए तो सरकार चंदा देने वाले को इनकम टैक्स में छूट देती है। अपनी आमदनी का 10» रकम कोई भी व्यत्तिफ़ और कोई भी कंपनी प्रमाणित कल्याणकारी संगठन को चंदे में दे सकती है। ऐसा कानून हैं।
पाठकों से अपील है कि आर्थिक तंगी से मछली की तरह छटपटाते हुए राष्ट्र को राहत देने के लिए जो भी संगठन पसंद आए, उसको अपनी क्षमता के अनुसार नियमित चंदा जरूर दें। दूसरे लोगों को चंदा देने के लिए समझाएं और चंदा देने में उनकी मदद करें। क्योंकि पैसे की कमी इस मिशन की गति में ब्रेक का काम कर रही है।
विश्व परिवर्तन मिशन अराजनीतिक रूप से इस अभियान को गति दे रहा है। वहीं वोटर्स पार्टी इंटरनेशनल राजनीतिक रूप से इस अभियान को गति दे रही है। आप किसी भी संगठन को चंदा दे सकते हैं। चंदा देने के लिए दोनों संगठनों के एकाउंट नम्बर नीचे दिये गये हैं-
डपेेपवद वित ळसवइंस ब्ींदहम
ैठप् – 39646954079
प्थ्ैब् – ैठप्छ0015116

टवजमते च्ंतजल प्दजमतदंजपवदंस
ैठप् – 37817768868
प्थ्ैब् – ैठप्छ0000691
आप वोटर पार्टी इंटरनेशनल को ऑनलाइन चंदा भी दे सकते हैं। आप पार्टी के सदस्य बनकर या बिना सदस्य बने पार्टी को चंदा दे सकते हैं। इसके लिए दोनों लिंक नीचे दिये गये हैं।
सदस्य बनकर चन्दा देने के लिए
ीजजचरूधधूूूण्अवजमतेचंतजलण्पदधरवपद
बिना सदस्य बने चन्दा देने के लिए
ीजजचरूधधूूूण्अवजमतेचंतजलण्पदधरवपदधकवदंजपवदे
चंदा दिलाने वालों का ऽर्च उठाती है एसटीएस
सर्वाेदय टेक्नो सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड को संक्षेप में एसटीएस (ैज्ै) कहा जाता है। यह एक रजिस्टर्ड कंपनी है। यह कंपनी उन लोगों का ऽर्च उठाती है। जो लोग वोटर्स पार्टी इंटरनेशनल को या विश्व परिवर्तन मिशन को चंदा दिलाने में चंदा देने वालों की मदद करते हैं। यह विषय ठीक से समझने के लिए कृपया वेबसाइट देऽें- ूूूण्ेजेबींतपजलण्बवउ
मिशन की पुस्तकें
पुस्तक का नाम भाषा मूल्य
वोटरशप लाओ, गरीबी हटाओ हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी 20/-
राजनीति सुधारो हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी 10/-
विश्व परिवर्तन मिशन से कैसे जुड़ें हिन्दी व अंग्रेजी 10/-
वीजा तोड़ो, दुनिया जोड़ो हिन्दी व अंग्रेजी 10/-
यू-एन-ओ- से यू-एन-जी की ओर- हिन्दी व अंग्रेजी 100/-
आर्थिक नरसंहार के खिलाफ महाभारत (संसद में पेश याचिका पर रपट) हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी 50/-
जनोपनिषद हिन्दी 350/-
समाजवाद से समाजप्रबन्ध की ओर हिन्दी 100/-
आध्यात्मिक अर्थशास्त्र हिन्दी 100/-
आर्थिक लोकतंत्र हिन्दी 100/-
धर्मनिरपेक्षता से धर्मसमदर्शिता की ओर हिन्दी 100/-
आत्माओं का प्रज्ञान हिन्दी 100/-
दर्शन का विज्ञान हिन्दी 100/-
वीपीआई का घोषणापत्र हिन्दी 100/-
संसद में वोटरशिप हिन्दी 250/-
भ्रष्टाचार रोको हिन्दी व अंग्रेजी 20/-
विश्व अर्थव्यवस्था युग हिन्दी व अंग्रेजी 100/-
गाँव का संविधान दस उंगली दस पेट के 10 सवाल हिन्दी व अंग्रेजी 50/-
धर्म का मर्म हिन्दी व अंग्रेजी 100/-
अधिकार और कर्तव्य हिन्दी व अंग्रेजी
लोकतंत्र की पुनर्खोज हिन्दी व अंग्रेजी 350/-
राजनीति का पासवर्ड हिन्दी व अंग्रेजी 350/-
अखण्ड भारत हिन्दी व अंग्रेजी

लेखक श्री विश्वात्मा भरत गांधी का परिचय
जन्मतिथि- 15 फरवरी 1969- जन्म स्थान- मुंबई, महाराष्ट्र।
प्रारंभिक शिक्षा- जौनपुर के पैतृक गांव के सरकारी प्राइमरी स्कूल से। बचपन से ही मेधावी।
उच्च शिक्षा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय से।
लेखक ने अपने शैक्षिक जीवन में उ- प्र- की सिविल सेवा प्रारम्भिक परीक्षा सहित कई प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता अर्जित की। स्वयं सरकारी नौकरी करने से किसी दूसरे विद्यार्थी की रोजी-रोटी न छिन जाये_ यह सोचकर लेखक ने सरकारी नौकरी के लिये मारामारी कर रही भीड़ में से स्वयं को 23 साल की उम्र में अलग कर लिया और सरकारी नौकरी न करने का फैसला कर लिया। परिणामस्वरूप प्रथम प्रयास में सफल होने के वावजूद सिविल सेवा मुख्य परीक्षा का बहिष्कार करके समय का सदुपयोग समाज सेवा के लिए करने का फैसला किया। इस प्रकार खुद को बेरोजगार रखकर लेखक ने बेरोजगारी की समस्या का स्थाई समाधान खोजने का फैसला किया। सरकारी डिग्रियां ‘किसी एक योग्यता’ का प्रमाण भले ही हों, किन्तु ‘सज्जनता’ का प्रमाण नहीं हैं। यह सोचकर विधि स्नातक कोर्स को दूसरे साल में छोड़ दिया। इस प्रकार 24 साल की उम्र में सन् 1993 में अपने शैक्षिक जीवन का अंत कर लिया।
लेखक का ज्यादातर निवास दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और गुवाहाटी में होता है। लेखक ने 22 साल की उम्र में तय किया कि वह रक्तपिता के पुत्र के रूप में अपनी जातीय पहचान 25 साल की उम्र के बाद नहीं रखेगे। 25-50 साल की उम्र में वह भारतीय राष्ट्रपुत्र ‘गांधी’ के रूप में जाने-पहचाने जाएंगे। 50-75 साल की उम्र में लेखक की पहचान विश्वपुत्र के रूप में होगी। इसी संकल्प को पूरा करते हुए उन्होंने अपने 50वें जन्मदिन पर अपना नाम विश्वात्मा रख लिया। 75 साल के बाद की उम्र में लेखक अपना परिचय परमपिता की संतान के रूप में देंगे।
लेखन कार्य
सन् 1993 में जब शिक्षा का बहिष्कार किया। तो सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए ‘नेशनल फाउण्डेशन ऑफ एजुकेशन एण्ड रिसर्च (नेफर)’ नामक एक स्वैच्छिक संगठन बना कर सन् 1995 में शिक्षा व्यवस्था का एक नया मॉडल विकसित किया। लेखक ने मेरठ व दिल्ली में 30 साल की उम्र तक राजनैतिक, आर्थिक व संवैधानिक सुधारों, सृष्टि के उद्विकास, अध्यात्म और दर्शन पर तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिख ली थीं।
गरीबों की सेवा
सन् 1997 में मेरठ के मजदूर बाजार में वोटरों को गुलामी से आजाद करने के उपाय के तौर पर लेखक ने वोटरशिप (मतकर्तावृत्ति) की खोज की। इस खोज के लाभों को लोगों तक पंहुचाने लिये व वोटरशिप में लोगों का विश्वास पैदा करने के लिये लेखक ने 28 साल की उम्र में प्रतिज्ञा की कि संसद द्वारा जनता की गुलामी खत्म करने के लिये प्रस्तावित वोटरशिप अधिकार संबंधी कानून बनाये जानेे तक न तो वह विवाह करेंगेे। न व्यक्तिगत आमदनी पैदा करेंगे। न अपना मकान बनवायेंगे। न कोई निजी संपत्ति बनायेंगे और न बैंक खाता रखेंगे। यानी स्वैच्छिक गरीब (फकीर) की तरह जीवन जियेंगे। इसी प्रतिज्ञावश लेखक 50 साल की वर्तमान उम्र तक अविवाहित हैं। अपना मकान न बनाने की प्रतिज्ञा के कारण लेखक को 20 सालों तक ऐसे परिवारों ने अपने पास रखकर लेखक के सेवाकार्य में सहयोग किया। जो लेखक के रक्त संबंधी भी नहीं थे। ‘उसी समाजसेवी का इतिहास बनने दो। जो समाजसेवा के योग्य हो, तपस्वी हो व फकीर हो। किन्तु शर्त यह है कि वह केवल अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी बढ़ाने के लिये ही काम करेे’- इस नीति, नियति व आदत के कारण ‘एबी’ मानसिकता के बड़े मीडिया मालिक व ज्यादातर खरबपति लोग लेखक से असहमत हैं। इसीलिये लेखक के कामों व उनके तपस्वी व्यक्तित्व के समाचारों का प्रसारण लगातार 20 सालों से रोक रहे हैं। कारण यह है कि लेखक गरीबों को न्याय दिलाने का काम कर रहे हैं।
1 से 14 जुलाई, 1998 में गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर लिये मेरठ के एक परिवार के मामले में 14 दिन तक केवल सादा पानी पीकर प्राणघातक अनशन किया। नौ सदस्यों के परिवार में से जीवित बची एकमात्र बच्ची के सुरक्षित व गरिमामय जीवन के लिये लेखक ने वोटरशिप की नियमित रकम की मांग की। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बच्ची के नाम चेक भेजकर अनशन में हस्तक्षेप करके अनशन समाप्त कराया। सन् 1999 में वोटरों की आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए लेखक ने एक संगठन बनाया। जिसका नाम रखा गया- आर्थिक आजादी आंदोलन परिसंघ। सन् 2001 में मेरठ के कताई मिल मजदूरों को शासन-प्रशासन ने जुल्म किया। तो उस जुल्म का विरोध करने की प्रतिक्रिया में तत्कालीन शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में झूठा मुकदमा दर्ज करके जेल भेज दिया। जिसे स्थानीय अदालत व हाई कोर्ट ने झूठा पाया और जिला कलेक्टर के अभियोग को केवल रद्द ही नहीं किया। अपितु झूठा मुकदमा करने वालों के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर मुकदमा भी दर्ज कर लिया। इस प्रकरण में लेखक ने अपनी वकालत स्वयं करके 83 दिन बाद स्वयं को व अन्य 32 लोगों को जेल से रिहा करा लिया।
राजनीति सुधार कार्य
15 अगस्त, 2000 को संविधान समीक्षा पर तत्कालीन भारत सरकार द्वारा गठित संविधान समीक्षा आयोग के समानांतर गंदी राजनीति व राजव्यवस्था सुधारने के लिये भारत के संविधान सुधार पर अपनी रपट तैयार की और रपट को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के- आर- नारायणन को सौंपते हुए संविधान सुधारों को स्वीकार करने की मांग की। सन् 2005-06 में लेखक ने लोकसभा व राज्य सभा यानी संसद के दोनों ंसदनों के 137 संसद सदस्यों के माध्यम से वोटरों को आजादी देने व राजनीति सुधारने के लिये संसद के दोनों सदनों में एक याचिका पेश की। लेखक के कहने पर 30 संसद सदस्यों ने नोटिस देकर लोकसभा में बहस की मांग भी की। किन्तु उच्च स्तरीय राजनीतिक साजिश के तहत संसद में 6 मई 2008 को तय बहस रोकने के लिये संसद का आकस्मिक सत्रवसान करा दिया गया। राज्यसभा के अधिकारियों की एक्सपर्ट कमेटी की 02 दिसम्बर, 2011 की रपट में स्वीकृति के बावजूद भी राज्यसभा के सभापति/उप राष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी के इशारे पर राज्यसभा के महासचिव पर दबाव डालकर वोटरों को आजादी देने के प्रस्ताव को 22 दिसम्बर, 2011 को फिर से रोक दिया गया और कह दिया गया कि लेखक के प्रस्ताव पर बेहतर हो कि लोकसभा विचार करे।
सन् 2011 में कथित 2 जी- स्पेक्ट्रम घोटाले में नामजद मोबाइल कम्पनियों के खरबपति मालिकों पर सी- बी- आई- का शिकंजा कसने लगा था। ‘कानून अपना काम करेगा’- यह कहकर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ- मनमनोहन सिंह ने सी-बी-आई- की गिरफ्रतारी से भ्रष्ट खरबपतियों को बचाने से मना कर दिया था। लेखक उस समय पूरे देश में एकमात्र व्यक्ति था जो इस निष्कर्ष पर पंहुचा कि जेल से बचने के लिये इन खरबपतियों ने अन्ना हजारे जैसे कुछ लोगों को मोहरा बनाया और कांग्रेस को हटाकर अपनी कठपुतलियों को सत्ता पर बैठाने की योजना बनायी। इसी योजना के तहत इन लोगों ने टी- वी- चैनलों व बड़े अखबारों के मालिकों को लोकपाल बनाने और भ्रष्टाचार खत्म करने के नाम पर हो-हल्ला करके जनता को भड़काने व सड़क पर उतार देने के लिये रिश्वत दे दी। जनता को सड़कों पर देख सी-बी-आई- व केन्द्र सरकार को लगा कि मोबाइल कम्पनियों के खरबपति मालिकों को यदि सी-बी-आई- गिरफ्रतार करती है तो देश में टी-वी- चैनलों से भड़काये गये लाखों लोग पुलिस व सेना की गोलियों से मारे जायेंगे।
इस पूरे षड्यंत्र के पीछे कौन-कौन लोग थे, इस बात की सीबीआई/एसआईटी जांच की मांग लेखक सन् 2011 से ही करते रहे हैं। जिसे खरबपतियों के डर से न तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने माना और न ही भाजपा सरकार ने। उक्त निष्कर्षों की परीक्षा हेतु लेखक द्वारा राष्ट्रपति को भेजे प्रत्यावेदन अभी भी विचाराधीन है। अंदर की ये बातें समय रहते बहुत कम लोग जान सके। किन्तु लेखक ने उसी समय ‘लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक’ बनाकर व 9 मई, 2011 को सरकार को सौंप कर देश को बड़े खून-खराबे से रोका।
अपराध व आतंकवाद पर नियंत्रण का कार्य
लेखक जनहित के मामलों पर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में स्वयं बहस करके लोगों को न्याय दिलाते हैं। अपनी इसी नीति के तहत मेरठ कोर्ट में बहस करके 32 लोगों को बाइज्जत जेल से बरी कराया। हाईकोर्ट इलाहाबाद में बहस करके मेरठ के अपराधी जिला कलेक्टर पर क्रिमिनल केस दर्ज कराया। उ- प्र- में अपराध के बल पर राजनीति करने के लिये समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में बहस करके आदेश पारित करवाया। जबकि अन्य सभी पार्टियां केवल जनता में वोट लेने के लिये ही उनके अपराधों का प्रचार करते हैं। जब मुख्यमंत्री ने उ- प्र- के पुलिस महानिदेशक और गृह सचिव पर दबाव डालकर उनसे भी अपराध करवाया। तो लेखक ने प्रदेश के इन उच्चस्थ अधिकारियों को भी कानून के शिकंजे में बांधा। राजनीति, राजनीति से बाहर के साधन सम्पन्न अपराधियों को सलाखों के पीछे पंहुचाने के काम के कारण लेखक पर कई बार जानलेवा हमले हुये। परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लेखक को पुलिस सुरक्षा देने के लिये आदेश पारित किये। लेखक को भारत के कुछ प्रदेशों में इसी वजह से पुलिस सुरक्षा प्राप्त है। वर्तमान में लेखक देश व विश्व स्तर पर आवश्यक राजनीतिक सुधारों व लोगों के चारित्रिक सुधारों के लिये कार्यरत हैं। लेखक देश भर में जगह-जगह राजनीति सुधारने और जीवन में सफलता की कला सीखने व सिखाने वालों को प्रशिक्षण देने के लिये शिविर लगाते हैं और अपने नीति निर्देशन में चल रहे संगठनों व राजनैतिक दलों की सभाओं को संबोधित करते हैं। विश्व की राजव्यवस्था को सुधारने के लिए लेखक ने एक अंतर्राष्ट्रीय संधि का मसौदा तैयार करके सन् 2015 में संसद के 198 देशों के विदेश मंत्रियों और संयुक्त राष्ट्र संघ को भेजा। वे इन देशों के राष्ट्रपतियों के साथ नियमित पत्र व्यवहार के माध्यम से एक शान्तिपूर्ण और समृद्ध विश्व बनाने के लिए सतत कार्यरत हैं।
लेखक की आमदनी का स्रोत
स्वैच्छिक फकीरी का जीवन अपना लेने के कारण लेखक की व्यक्तिगत आय का कोई स्रोत नही है। लेखक की पुस्तकों के प्रकाशन, हवाई यात्रओं, स्वास्थ्य, सुरक्षा व सचिवालय का खर्च उठाने के लिये लेखक के अनुयायी, समर्थक और विश्व परिवर्तन मिशन ट्रस्ट जैसे कई संगठन मिलकर उठाते हैं। यह ट्रस्ट छोटे-छोटे नियमित दान से श्री विश्वात्मा की खोजों का लाभ आम जन तक पंहुचाने का काम और जरूरतमंद लोगों की सेवा का काम कर रहा है।

वोटरशिप के लिए हस्ताक्षर अभियान
सेवा में,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
निवेदन है कि 2011 के संसद में लम्बित वोटरशिप प्रस्ताव पर बहस कराकर जल्द से जल्द कानून बनायें।

क्रम नाम हस्ताक्षर
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